पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१३१

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रामचरित मानस । होइहि पूज्य सकल जग माहीं । एहि सेवत कछु दुर्लभ नाही। एहि कर नाम सुमिरि संसारा । तिय चढ़िहहिं पतिव्रत असि धारा॥३॥ सम्पूर्ण जगत् में पूज्य होगी, इसकी सेवा करने से कुछ दुर्लभ न रहेगा। संसार में त्रियों इसका नाम स्मरण करके पतिव्रता रूपी तलवार की धार पर चढ़ेगी ॥३॥ सैल सुलच्छनि सुता तुम्हारी । सुनहु जे अब अवगुन दुइ-चारी। अगुन अमान मातु-पितु हीना । उदासीन सब संसय छीना ॥ १ ॥ हे पर्वतराज ! तुम्हारी पुत्री सुन्दर लक्षणवाली है, अब उसमें जो दो चार दोष है वह सुनिए । निर्गुणी, मानरहित, भाता-पिता से हीन, निरपेक्ष (त्यागो) और समस्त सन्देहों से शुन्ध nen दो०--जोगी जटिल अकाम-मन, नगन अमङ्गल-बेख । अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि, परी हस्त असि रेख ॥ ६ ॥ योगी, जटाधारी, निष्काम हृदय, नगा और श्रमबल बेपवाला, ऐसा स्वामी इसको : मिलेगा, हाथ में ऐसी रेखा पड़ी है ।। ६७ ॥ चौ०-सुनि मुनि-गिरा सत्य जिय जानी । 'दुख-दम्पतिहि उमा-हरवानी .. नारदहू यह भेद न जाना । दसा एक समुभव बिलगाना॥१५ मुनि की बात सुन कर और उसको मन में सच जान कर स्त्री के सहित हिमवान को दुःख हुआ, पार्वतीजी प्रसन्न हुई। इस भेद को नारदजी ने भी नहीं जाना । दशा एक सी है पर दोनों ओर की समझ भित्र भिन्न है ॥ १॥ हिमवान और मैना की आँखों में पुत्री के स्नेह वश करुणा से आँख भर आया और पार्वतीजी के हृदय में स्वामी के चरणों में प्रीति उमड़ी, हर्प से नेत्रों में जल भर पाया प्रत्यक्ष में हिमवान, मैना, सहेलियाँ और पार्वती सब की आँखों में पानी भरा हुआ एक समान दशा है किन्तु समझदारी मिन 'मिलीत अलंकार' है, क्योंकि इसका पता योगिराज नारदजी को भी नहीं चला। सकल सखी गिरिजा गिरि मैना । पुलक सरीर भरे जल नैना . होइ न मृषा देवरिषि भाखा । उमा सो वचन हृदय धरि राखा ॥२॥ सारी सखियाँ, पार्वती, हिमवान और मैना के शरीर पुलकित एवम् नेत्रों में जल भरे हैं। देवर्षि नारदजी को वाणी मिथ्या न होगी (ऐसा समझ कर) पार्वतीजी ने उस बचन को हदय में रख लिया ॥२॥ उपजेउ सिव-पद-कमल सनेहू । मिलन कठिन भा मन सन्देहू ॥ जानि कुअवसर प्रीति दुराई । सखी-उछङ्ग बैठि पुनि जाई ॥३॥ शिवजी के चरण-कमलों में प्रीति उत्पन्न हुई, किन्तु मिलने का कठिन सन्देह मन में हुआ ! कुसमय समझ कर स्नेह को छिपाया, फिर सखी की गोदी में जा बैठौं ॥ ३ ॥