पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१२४

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड । दो-सत्ती बसहि कैलास तब, अधिक सोच मन माहि। मरम न कोऊ जान कछु, जुग सम दिवस सिगहि ॥ ५ ॥ तब सती कैलास में रहने लगी, उनके मन में बड़ा सोच था। इसका भेद कोई कुछ नहीं जानता, उनका दिन युग के समान बीतता है ॥५॥ चौ-नित नव सोच सती उरमारा । कब जइहउँ दुख-सागर पारा ॥ मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना। पुनि पति-वचन मृषा करि जोना॥१॥ सती के हृदय में नित्य नया बड़ा भारी सोच है कि दुःख-सागर से कब पार पाऊँगी। मैं ने जो रघुनाथजी का अपमान किया और फिर पति के वचन को झूठ करके समझा ॥१॥ सो फल मेहि बिधाता दीन्हा । जो कछु उचित रहा सेाइ कीन्हा । अब विधिअसबूझिय नहिँ तोही। सङ्कर-बिमुख जिआवसि मोही ॥२॥ वह फल विधाता ने मुझे दिया, जो कि उचित था वही किया। पर हे ब्रह्मा ! अब तुम्हें ऐसा न विचारना चाहिये कि शङ्करजी के प्रतिकूल होने पर मुझे जिलाते हो ॥२॥ कहि न जोड़ कछु हृदय गलानी । मन महँ रामहि सुमिरि सयानी ॥ प्रभु दीनदयाल कहावा । आरति-हरन बेद जस गावा ॥३॥ उनके हृदय की ग्लानि कुछ कही नहीं जाती, सयानी सती मन में रामचन्द्रजी का स्मरण कर विनती करती हैं कि हे प्रभो ! यदि आप दीनदयालु कहलाते हैं और वेद यश गाते हैं कि आप दुःख हरनेवाले हैं ॥३॥ 'सयानी शब्द साभिप्राय है, क्योंकि चतुर ही रामचन्द्रजी का स्मरण करते हैं। तो मैं बिनय करउँ कर जोरी । छूटइ बेगि देह यह मारी जाँ मेरे सिव-चरन सनेह । मन क्रम बचन सत्य व्रत एहू ॥४॥ तो मैं हाथ जोड़ कर विनती करती हूँ कि यदि मन, क्रम और वचन ले शिवजी के चरणों में मेरा संचावत स्नेह हो तो मेरी यह देह तुरन्त छूट जाय ॥४॥ दो-तो सबदरसी सुनिय प्रभु, करउ सो बेगि उपाइ । होइ मरन जेहि बिनहिँ स्रम, दुसह बिपत्ति बिहाइ ॥५६॥ तो हे प्रभो ! सुनिए, आप सब देखनेवाले हैं, शीघ्र ही वह उपाय कीजिए जिससे मेरी मृत्यु हो और बिना परिश्रम ही असहनीय विपत्ति छूट जाय ॥ १६ ॥ चौ०--एहि बिधि दुखित प्रजेसकुमारी। अकथनीय दारुन दुख भारी ॥ बीते सम्बत सहस-सतासी ।तजी समाधि सम्भु अबिनासी ॥१॥ इस तरह प्रजापति की पुत्री दुःखित हैं, उनका बड़ा भीषण दुःख कहने योग्य नहीं है। सत्तासी हज़ार वर्ष बीत गये, तब अविनाशी शिवजी ने समाधि छोड़ी ॥१॥ 'प्रजेशकुमारी' शब्द साभिप्राय है, शङ्कर-विमुखी की कन्या का दुखी होना योग्य ही है। }