पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११७८

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सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । १०९ तोटकवृत्त । अबला कच भूषन सूरि छुधा । धनहीन दुखी ममता बहुधा ।। सुख चाहहिँ मूढ़ न धर्मरता । मति थोरि कठोरि न कोमलता ॥१६॥ त्रियों को पाल हो गहने हैं और भूख बड़ी है, दरिद्री तथा दुखी रहने पर भी उन्हें बहुत तरह से घमण्ड रहता है। धर्म में तत्पर न रह कर वे मूर्खता वश सुख चाहती हैं, उनकी • बुधि में कोमलता थोड़ी भी मही; कठोरता से भरी रहती हैं ॥१६॥ नर पीड़ित रोग न भोग कहाँ । अभिमान बिरोध अकारनहीं ॥ लघु जीवन सम्बत पञ्चुदसा । कलपान्तन नास शुमान अष१७॥ मनुस्य व्याधियों से पीड़ित, सुया का कहीं नाम नहीं, बिना कारण ही अभिमान और विरोध करते हैं। जोना थोड़ा दस पाँच वर्ष को, पर प्रहार ऐसा कि कल्पान्त तक मेरा नाश न होगा ॥१७॥ कलिकाल धिहाल किये मनुजा । नहि मानत की अनुजा तनुजा ॥ नहिँ तोष विचार न सीतलता । सब जाति कुजाति अये मँगता कलिकाल ने मनुष्यों को बुरी एशा कर डाली, कोई बहिन बेटी नहीं मानते हैं। सन्तोष, विचार नहीं और न किसी में शान्ति है, सब जाति कुजाति मान हो गये ॥१॥ इरिषा परुखाच्छर लोलुपता । भरिपूरि रही समता बिगता ॥ सब लोग वियोगबिसक हये । बरनालम धर्म अचार गये ॥१॥ ईया, फाचन और अत्यन्त लालवपन भरपूर हो रहा है, समता जाती रही। सब लोग हियोग के गहरे शोफ से नष्ट हुए हैं, वर्ण पार आश्रम के धर्माचार चले गये ॥१६॥ दम दान दया नहिं जानपनी । जड़ता परबञ्चनताति धनी ॥ तनुपोषक नारि नरा संगरे । परनिन्दुक जे जग में बगरे ॥३०॥ इन्द्रियदमन, दान, दया और बुद्धिमानी नहीं है, सब में मूर्खता तथा दूसरे को गना बहुत ही यहा है। सम्पूर्ण स्त्री-पुरुष अपने शरीर के पालनेवाले हैं और जो पराये को निन्दा करते हैं वे संसार में फैल रहे हैं ॥२०॥ जानपनी' शब्द के पर्यायी माम-बुद्धिमानी, चतुराई, जानकारी, होशियारी है। इसी मर्थ में अपने शन्य भन्धों में गोस्वामीजी ने इस शब्द का प्रयोग किया है । यथा--"जानी है जानपनी हरि को, और जानपनी को गुमान वडो तुलसो, के विचार गधार महा है"। व्यालारि काल कलि, मल अवगुन आगार। दो०-सुनु गुनउ बहुत कलिजुग कर, बिनु प्रयास निस्तार ॥ हे गाडी सुनिये, कलिकाल पाप और अवगुणों का घर है। कलियुग के गुण भी पत है कि बिना परिश्रम ही संसार से छुटकारा मिलता है। सभा की प्रति में सुनुव्यालारि फराल कलि' पाठ है।