पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११७१

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। १०६२ रामचरित मानस। यहाँ गरुड़जी ने चार प्रश्न किये। यथा-"(१) आप को कौए की देह किस कारण मिली १ (२) रामचरितमानस किस जगह प्राप्त हुआ ? (३) आप को काल क्यों नहीं व्यापता? (४) इस आश्रम में आने से मोह भ्रम जाता रहा, इसका क्या कारण है ?'! चौथ-गरुड़ गिरा सुनि हरषेउ कागा। बोलेउ उमा सहित अनुरागा ॥ धन्य धन्य तवमति उरगारी । प्रस्न तुम्हारि माहि अति प्यारी॥१॥ शिवजी कहते हैं-हे उमा ! गरुड़की वाणी सुन कर कागभुशुण्ड प्रसन्न हो कर प्रेम के साथ बोले । हे सरि ! श्राप को बुद्धि धन्य है, धन्य है, आपकी प्रश्नावली मुझे अंत्यन्त प्यारी हैं ॥१॥ 'प्रश्न' शब्च को कविजी ने सर्वन स्त्रीलिङ्ग मान फर प्रयोग किया है, तदनुसार यहाँ भी है। जुनि तव प्रस्न सप्रेम सुहाई । बहुत जनम की सुधि मोहि आई ॥ सब निज कथा कहउँ मैं गाई । तात सुनहु सादर मन लाई ॥२॥ ग्रेम भरी भाप की सुहावनी प्रश्नावली सुन कर मुझे बहुत जन्म को सुध हो पाई। मैं अपनी सब कथा गा कर कहता हूँ, हे तात ! श्रादर-पूर्वक मन लगा कर सुनिये ॥२॥ सभा की प्रति में 'अब निज कथा कह मैं गाई पाठ है ! जप तप मख सम दम ब्रत दाना । बिरति बिबेक जोग बिज्ञाना ॥ सच कर फल रघुपति-पद प्रेमा । तेहि बिनु कोउन पावइ छेमा ॥३॥ जप, तप, यज्ञ, सौम्यता, इन्द्रियदमन, उपवास, दान, वैराग्य, योग और विज्ञान सब का फल रघुनाथजी के चरणों में प्रेम होना है, जिसके बिना कोई कल्याण नहीं पाता ॥३॥ एहि तन राममगति मैं पाई । तात मोहिममता अधिकाई ।। जेहि त कछु निज स्वारथ हाई । तेहि पर ममता कर सबकोई ॥४॥ इस शरीर से मैं ने रामभक्ति पाई है, इसलिये मुझे इस पर बड़ी ममता है। जिससे कुछ मतलब होता है, उस पर सब कोई प्रेम करते हैं ॥४॥ सो०-पञ्चगार असि नीति, खुति सम्मत सज्जन कहहिं । अति लीचहु सन 'प्रीति, करिय जानि निज परम हित ॥ हे गरुड़जी ! घेद मत के अनुसार सज्जन लोग ऐसी नीति कहते हैं कि अपना परम कल्याण जान कर अत्यन्त नीच से भी प्रीति करनी चाहिये। पाट कीट त हाइ, तेहि त पाटम्बर रुचिर । कृमि पालइ सबकोइ, परम अपावन प्रान सम ॥५॥ रेशम कीड़े से पैदा होता है, उससे सुन्दर रेशमी कपड़े बनते हैं । अत्यन्त अपवित्र उस कृमि को संब कोई प्राण के समान पालते हैं ॥५॥ 1