पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११५८

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1 सप्तम सोपान उत्तरकाण्डे । १०७६ अंडकोस प्रति प्रति निज रूपा । देखउँ जिनिस अनेक अनूगा । अवधपुरी प्रति झुक्न निहारी। सरजू भिन्न मिक्ष नर जारो ॥३॥ हर एक ब्रह्माण्ड में शपना रूप अनेक प्रकार का अनुपम देखा। प्रत्येक लोकों में अयोध्यो- पुरी, सरयूनदी और सी-पुरुप भिन्न भिन्न वरह अवलोकन किया ॥३॥ । दसरथ कौसल्या सुनु ताता । विविध रूप भरतादिक साता ॥ प्रति ब्रह्मांड राम अवतारा । देखेउँ बालबिनोद उदारा ॥४ हे तात! सुनिये, दशरथ, कौशल्या और भरत श्रादि को अनेक रूप में देखा। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में रामचन्द्र जी का जन्म और श्रेष्ठ पालक्रीड़ा देखी ॥३॥ दो-भिन्न भिक्ष में दीख सक्ष, अति बिचित्र हरिजाल । अगनित फिरउँ प्रसु, राम न देखेउँ आन ॥ है विष्णु पाइन, स्वामिन् ! मैं ने सब अत्यन्त विलक्षण और ही और प्रकार के देखे। असंख्यों लोकों में फिरा, परन्तु रामचन्द्रजी के दूसरे रूप में नहीं देखा। सोइ सिसुपन सेाइ सामा, खोइ कृपाल रघुबीर । भुवन भुवन देखत फिरउँ, प्रेरित मोह समीर ॥२१॥ वही लड़कपन, वही शेमा, उन्हीं कृपालु रघुनाथजी को लोक लोकान्तरों में मोह अपी वायु की प्रेरणा से मैं देखता फिरा ॥१|| चो०-भ्रमत माहि ब्रह्मांड अनेका । बीते मनहुँ कलप सत एका ॥ फिरत फिरत निज आलम आयउँ । तह पुनि रहि कछु काल गजायउं ॥१॥ मुझे असंख्या प्रमाण्ड में घूमते हुए मानो एक कल्प बीत गये। फिरते फिरते अपने प्राश्रम में माया, फिर वहाँ रह पर कुछ समय व्यतीत किया ॥१॥ प्रभु जनम अवध सुनि पायउँ । निर्भर प्रेम हरषि उठि धायउँ । देखे। जनम-महोत्सव जाई । जेहि बिधि प्रथम कहा मैं गाई ॥२॥ अपने स्वामी का जन्म अयोध्या में सुन पाया, प्रेम से परिपूर्ण प्रसन्न हो कर उठ दौड़ा। आकर जन्ममहोत्सव देखा, जिस तरह पहले मैं ने गा पर कहा है ॥२॥ राम उदर देखेउँ जग नाना । देखत बनइ न जाइ मखाना ॥ तह पुनि देखेउँ राम सुजाना । मायापति कृपाल भगवाना ॥३॥ निज ! रामचन्द्रजी के पेट में अनेक जगत देखो, वह देखते ही बनता था वर्णन नहीं किया जा सकता। फिर वहाँ सुजान, माया के स्वामी, भगवान रामचन्द्रजी को देखा ॥३॥