पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११५४

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लप्सम खापान, उचरकापड १०७५ नील लाजल अब सोचन । साजत भाल तिल गोधन ।। विकट भृकुटि समसत्रन सुहाये । कुञ्जिन 'कच मेचक छवि छाये ॥३॥ नील कमल के समान नेश संसार-बन्धन से छुहानेवाले हैं, गोलोचन का तिलक माथे पर शोभायमान है । टेडो मोद, सुहावने घरायर कार और काले घूघरवाले पाल कृषि के. स्थान है॥३॥ पीत कीनि माँगली तन साही । किलकनि चितवनि भावसि माही॥ अपरासि नप अजिर बिहारी । नाचहि निज प्रतिभिरुन निहारी ॥३॥ पीली पतले बल की अंगरखी शरीर पर शोभायमान है, बगकी किलकारी और चितवन मुझे भाती राजा के जाँगन में विदरनेवाले रूप के राशि रामचन्द्रजी पनी परवाही देख कर नाचते men मोसनकरहि विविधविधिक्रीड़ा। वरनत चरित हात माहि जोड़ा। किलकत मोहि धरन जन धावहिँ । चलउँ मागि तम धूप देखावहि ॥ मुझ से नाना प्रकार का खेल करते हैं, यह धरित वन करते हुए मुझे लजा हो रही है। जब मुझे सिलपारी मार फर पकड़ने के लिये दौड़ते हैं और मैं भाग चलता हूँ तय पुभा. दिखाते ॥ दो-आवत निकट हँसहि प्रभु, भाजत रुदन राहि । जाउँ समीप गहन पद, फिरि फिरि चितइ पराहि । प्रभुरामचन्जो मेरे समीप जाने पर हंसते थे और मैं भागता था तब रोने लगते थे। मैं पाँच पकड़ने की ज्या से पास में जाता था तब चार बार मुझे निहारते हुए भागते थे। प्राकृत सिसु इव लीला, देखि भयउ हि नाह। कवन चरित्र करत प्रभु, चिदानन्द सन्दोह १७०n साधारण बालक की तरह खेलवाड़ करते देख कर मुझे मोह उत्पन्न हुया कि प्रभु राम- चन्द्रजी चैतन्य और मानन्द के राशि (परग्रह) हैं, यह कौन सासरिन करते हैं ? in चौ० 10--एतना लन आनत खगराया । रघुपति प्रेरित ब्यापी माया। सो माया न दुखद मोहि काही। आन जीव इव संसृति नाहीं॥९॥ हे पतिराज ! इतना मन में लाते हो रघुनाथजी को प्रेरणा से मुझे माया व्याप गई। वह माया मुझ को दुखदाई नहीं हुई, अन्य जीवों की तरह संसार में पतित परनेवाली : जो माया जीवमान को संसार में गिरा कर नाना दुस्पा देती है, वह रघुनाथजी की प्रेरणा से मुझे दुखदाई नहीं हुई विशेषक अलंकार' है।