पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११५

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६ रामचरित मानस । करि छल मूढ़ हरी बैदेही । प्रभु प्रमाउ तस विदित न तेही॥ मृग बधि बन्धु सहित प्रनु आये । आस्लम देखि नयन जल छाये ॥३॥ उस मूर्ख ने छल कर के जानकीजी को हर लिया, प्रभु रामचन्द्रजी की जैसी महिमा है वैसी उसको मालूम न थी। हरिण को मार कर भाई के सहित रघुनाथजी आश्रम में आये, (वहाँ सीताजी कोन) देख कर उनकी आँखों में जल भराया ॥३॥ बिरह बिकल नर इव रघुराई । खोजत विपिन फिरत दोउ भाई ॥ कबहूँ जोग बियोग न जा के । देखा प्रगट दुसह दुख तो के ॥ ४ ॥ विरह से व्याकुल मनुष्य की तरह दोनों भाई रघुनाथजी वन में सीताजी को हूँढ़ते फिरते हैं । जिनको कमी संयोग वियोग नहीं होता, उनको प्रत्यक्ष असहनीय दुःख में (शिवजी ने) देखा ॥४॥ दो अति विचित्र रघुपति चरित, जानहिँ परम सुजान । जे मतिमन्द बिमोहबस, हृदय धरहिँ कछु आन ॥ १६ ॥ रघुनाथजी का चरित बहुत ही विलक्षण है, इसको परम सुजान (सानो) ही जानते है । जो नीच वुद्धि अज्ञान के वश में हैं, वे मन में कुछ और ही समझ रखते हैं ॥४॥ 'अति विचित्र' शब्द में यह ध्वनि है कि सती जैसी महान् विदुपी देवी को भी जिस चरित्र के देखने से मोह उत्पन्न हो गया, फिर परम सुजाम के सिवा साधारण बुद्धिवाले उसे ठीक ठीक कैसे समझ सकते हैं? यह सहज ही अनुमेय है। चौ०-सम्भु समय तेहि रामहि देखा । उपजा हिय अति हरष बिसेखा। भरि लोचन छबिसिन्धु निहारी । कुसमय जानि न कीन्ह चिन्हारी॥१॥ उसी समय शिवजी ने रामचन्द्रजी को देखा, उनके हृदय में यहुत बड़ा प्रानन्द उत्पन्न हुआ। शोभा-सागर ( रघुनाथजी ) की आँख भर देख कर बेमौका समझ कर चिन्हारी नहीं किया ॥१॥ जय सच्चिदानन्द जग-पावन । अस कहि चलेउ मनोज-नसावन । चले जात सिव सती-समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥२॥ जगत् को पवित्र करनेवाले सच्चिदानन्द भगवान् की जय हो, ऐसा कह कामदेव को भष्ट करनेवाले चले । कृपा निधान शिवजी सती के सहित चले जाते हैं, पर उनका शरीर बार बार पुलकायमान हो रहा है ॥२॥ सती से दसा सम्भु कै देखी । उर उपजा सन्देह बिसेखी ॥ सङ्कर जगतबन्ध. जगदीसा । सुर नर मुनि सब नावहिं सीसा ॥३॥ सती ने शिवजी की वह दशा देखी, उनके हृदय में बड़ा सन्देह उत्पन्न हुआ। वे मन में सोचने लगी कि शङ्करंजी जगत्पूज्य जगदीश्वर है, इन को देवता, मुनि और मनुष्य सब मस्तक नवाते हैं ॥३॥