पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११३८

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. सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । १०५ फिर प्रत्यक्ष में थोले-ऐ गरुड़ ! भगवान की माया का बहुत बड़ा प्रभाव है, जिसने असंख्यों पार मुझे नचाया है ॥२॥ अग जग मय सब सम उपराजा । नहिं आचरज माह खगराजा ॥ सय बोले विधि गिरा सुहाई । जान महेस राम प्रभुताई ॥३॥ जड़ चेतन मय संसार सय मेरा उत्पन्न किया है, हे पक्षिराज ! (जब मुझे माया नाव नचाती है, तब आप को मोह होना शाश्चर्य नहीं है । तब सुन्दर बचन ब्रह्माजी बोले कि रामचन्द्रजी की प्रभुता को शहरजी जानते हैं ॥३॥ बेनतेय पहिं जाहू । तात अनत पूछहु, जनि तहँ होइहि तव संसय हानी । चलेउ बिहङ्ग सुनत बिधि बानी ॥४॥ तात गएड शहरजी के पास जाओ, अन्य किसी से मत पूछो । वहाँ तुम्हारा सन्देह नाश होगा, बालाजी की बात सुनते ही विनतानन्दन चले ॥४॥ दो०-परमातुर बिहसपति, आयउ तब मो पास । जास रहेउँ कुबेर गृह, रहिहु उमा कैलास ॥६०॥ तर पतिराज बहुत घबराये हुए मेरे पास आये, (पार्वतीजी ने कहा-स्वामिन् ! उस मैं कहाँ थी?) शिवजी ने कहा-हे उमा ! मैं कुवेर के घर जा रहा था और तुम कैलास ही पर थी । ६० ॥ चौ० तेहिं मम पद-सादरसिर नाना । पुनि आपन सन्देह सुनावा । सुनि ताकरि बिनतीमृदु धानी । प्रेम सहित में कहेउँ भवानी ॥१॥ उन्होंने श्रादर से मेरे चरणों में सिर नवाया, फिर अपना सन्देह कह सुनाया। उनकी विनती भरी कोमल वाणी सुन कर, हे भवानी। मैंने प्रोति पूर्वक कहा ॥ १ ॥ मिलेहु गरुड़ मारग महँ माही । कवन भाँति समुझावउँ ताहीं। तबहिं होइ सव संसय भङ्गा । जब बहु काल करिय सतखडा ॥२॥ हे गरुड़ ! तुम मुझे रास्ते में मिले, मैं किस तरह समझाऊँ । तुम्हारा सन्देह वी नाश होगा जब बहुत काल तफ सरसन करोगे ॥ २ ॥ सुनिय तहाँ हरि कथा सुहाई । लाना भाँति मुनिन्ह जो गाई । जैहि महँ आदि मध्य अवसाना । प्रभु प्रतिपाल राम भगवाना ॥३॥ यहाँ भगवान की सुहावनी कथा सुनिये जो अनेक प्रकार से मुनियों ने गाई है। जिसमें मादि, मध्य और अन्त में प्रभु भगवान रामचन्द्र जी ही समझने के योग्य हैं अर्थात् उस कथा के.प्रधान नायक रामचन्द्रजी है ॥३॥ समय