पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११३

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रामचरित मानस । तात सुनहु सादर मन लाई। कहउँ राम कै कथा सुहाई ॥ महामाह महिषेस बिसाला । रामकथा कालिका कराला ॥३॥ हे तात ! मन लगा कर श्रादर के साथ मुनिए, मैं रामचन्द्रजी की सुहावनी कथा कहता हूँ। महा अज्ञानरूपी विशाल महिषासुर का दमन करने के लिए रामकथा भयङ्कर कालिका रूपी है ॥३॥ रामकथा ससि-किरन समाना । सन्त चकोर करहिं जेहि पाना । ऐसइ संसय कीन्ह भवानी । महादेव तब कहा बखानी ॥ रामचन्द्रजी की कथा चन्द्रमा की किरणों के समान है, जिसको सन्त रूपी चकोर पान करते हैं। ऐसा ही सन्देह पार्वतीजी ने किया था, तब महादेवजी ने बखान कर (विस्तार पूर्वक) कहा ॥४॥ 'दो-कहउँ सो मति अनुहारि अब, उमा-सम्भु सम्बाद । भयउ समय जेहि हेतु जेहि, सुनु मुनि मिदिहि बिषाद ॥४७॥ श्रय मैं अपनो वुद्धि के अनुसार शिव-पार्वती सम्बाद कहता हूँ, जिस समय और जिस कारण हुश्रा, हे मुनि ! यह सुनिए, विषाद नष्ट हो जायगा ॥४७॥ गुटका में 'भयउ समय जेहि हेतु अब पाठ है। चौo-एक बार त्रेताजुग माहीं । सम्भु गये कुम्भज रिषि पाहीं ॥ सङ्ग सती जगजननि भवानी । पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी ॥१॥ एक वार त्रेतायुग में शिवजी अगस्त्यमुनि के पास गये । उनके साथ में जगन्माता भवानी सतीजी थी, ऋषि ने सर्वेश्वर जान कर उनकी पूजा का ॥१॥ रामकथा मुनिबर्ज बखानी। सुनी महेस परम सुख मानी ॥ रिषि पूछी हरिभगति सुहाई । कही सम्भु अधिकारी पाई ॥२॥ मुनिवर्य अगस्त्य ने रामचन्द्रजी के चरित्र वर्णन किये, शिवजी ने बड़ी प्रसन्नता से सुना। ऋषि ने सुहावनी हरिभक्ति पूछी, शिवजी ने उन्हें अधिकारी जान कर कही ॥२॥ अनधिकारी से रामभकि न कहना चाहिये यह व्यहाथ, वाच्यार्थ के बराबर तुल्यप्रधान . गुणीभूत व्यक्त है। कहत सुनत रघुपति-गुन-गाथा । कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा । मुनि सन बिदा माँगि त्रिपुरारी । चले भवन सँग दच्छकुमारी ॥३॥ रघुनाथजो के गुणों की कथा कहते सुनते कैलासपति वहाँ कुछ दिन रहे । फिर मुनि से विदा लेकर शिवजो ददतनया ( सतीजी) के सहित घर चले ॥३॥