सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । १०४५ कार खामियों में बोगसीलाख योनियाँ है. यह नाश रहित जाव उनमें सटकता फिरता है ॥२॥ चार लाख चौरासी लक्ष योलियों को गणना पालकाण्ड में सात ोहे के आगे प्रथम चौपाई के नीचे की टिप्पणी देखो। फिरत सदा माया कर प्रेरा । काल कर्म भाव गुन घेरा॥ कबहुँक करि करुना नर-देही । देत ईस मिनु हेतु सनेही ॥३॥ माया की प्रेरणा से सदा शाल, स्वभाव और गुणों से घिरा हुधा (यह जीव योनियों में घूमता ) फिरता है। बिना कारण स्नेह करनेवाला ईश्वर कभी दया करके मनुष्य का शरीर देता है ॥३॥ नर तनु भव बारिधि कहँ । नमुख मरुत अनुग्रह मेरो करनधार सदगुरु दृढ़ नावा । दुर्लभ साज सुलभ करि पाया। मनुष्य का शरीर संसार रूपी समुद्र पार करने के लिये जहाज रूप है और मेरी छपा मनुकल वायु है। इस मजबूत नार के सद्गुरु नाविक (मल्लाह) सप हैं, ऐसा दुर्लभ सा- मान जीय को सदज में माप्त है ॥४॥ दो-जो न तरइ भव-सागर, नर समाज अस पाइ । सो कृतनिन्दक सन्दसति, आतम-हन गति जाइ ॥४॥ ऐसा मनुष्य समाज पार जो संसार रूपी समुद्र से पार न हो, यह कृतज्नी, नीच. बुद्धि है और भात्महत्या करनेवालों की गति में जाता है ॥ ४४ ॥ चौ० जौं परलोक इहाँ सुख प्यहहू । सुनि भम बचन हृदय दृढ़ गहहू ॥ सुलम सुखद मारग यह भाई । भगति मोरि पुरान खुति गाई ॥१॥ यदि परलोक और यहाँ (लोक में सुख चाहते हो तो मेरी बात सुन कर ढ़ता से उसको रदय में ग्रहण करो। हे भाई! यह रास्ता सहज और सुखदायक है, मेरी भक्ति को पुरा और वेदों ने गाई है ॥१॥ ज्ञान अगम प्रत्यूह अनेका । साधन कठिन न बन कह टेका। करत कष्ट बहु पावइ कोज । अगति हीन सोहि प्रिय नहि खाऊ ॥२॥ शान दुर्योध है उसके साधन में अनेक विघ्न और कठिनाइयाँ हैं, मन को आधार नहीं रहता बहुत कष्ट करके यदि कोई पर भी जाय तो मधि के बिना मुझे यह मिय नहीं है ॥ २॥ भगति सुतन्त्र सकल सुख खानी। बिनु सतसङ्ग न पावहि मानी। पुन्य पुज बिनु मिलाह न सन्सा । सतसङ्गति संसृति कर अन्ता ॥३॥ भक्ति स्वतन्त्र और समस्त सुखों की खान है, शिमा सत्सा के प्राणी उसे नहीं पाते। बिना पुण्य-समूह परनेवाली है ॥३॥ के सन्तजन नहीं मिलते और सत्साति हो संसार के दुखों का अन्त
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