पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११२२

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दे-सुनहु सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । १०४३ तात माया कृत, गुन अरू दोष अनेक । गुन यह उलय न देखियहि, देखिय सो अबिबेक ॥४१॥ हे भाई! सुनिये, माया के किये हुए गुण और दोष अपार हैं । गुण यह है कि इन दोनों को न देखना चाहिये, यदि देखा जाय तो यह अविचार है ॥४॥ चौ०--श्रीमुख बचन सुनत सब भाई । हरणे प्रेम न हाय समाई । काहिं बिनय अति बार धारा । हनूमान हिय हरष अपारा ॥१॥ श्रीरामचन्द्रों के मुखारविन्द्र के पचन सुनते ही सब भाई प्रसन्न हुए, उनके दय में मेम समाता नहीं ( उमड़ा पड़ता है। इनूमानजी के मन में अपार हर्ष हुमा वे पार था बड़ी प्रार्थना करते हैं ॥१॥ पुनि रघुपति निज मन्दिर गये। एहि बिधि चरित करत नित नये। धार बार नारदमुनि आवहिँ । चरित पुनीत राम के गावहिं ॥२॥ फिर रघुनाथजी अपने महल में गये, इसी तरह नित्य नवीन चरित करते हैं। पार वार नारदमुनि पाते हैं और रामचन्द्रजी के पवित्र चरित्र का गान करते हैं ॥२॥ नित नव चरित देखि मुनि जाहौं । ब्रह्मलोक सब कथा कहाहीं । सुनि बिरजि अतिसय सुख मानहिँ । पुनि पुनितात करहु गुन गानहि ॥३॥ मुनि नित्य नयी लीला देख कर नहालोको जाते हैं, वहाँ लय कथा कहते हैं, सुन कर ब्रह्माजी बहुत सुख मानते हैं और कहते हैं-हे तात ! फिर फिर गुण गान करो ॥३॥ सनकादिक नारदहि सराहहिँ । जसपि ब्रह्म-निरत मुनि आहहिँ ॥ सुनि गुन गान समाधि विसारो। सादर सुनहि परम अधिकारी ॥४॥ सनकादिक मुनीश्वर नारदजी की प्रशंसा करते हैं, यद्यपि थे मुनि ब्रह्म में लीन रहते हैं। रामचन्दजी के गुणगान को समाधि (ब्रता का ध्यान ) भुला पर परम अधिकारी मुनिवर भावर से सुनते हैं । दो०--जीवनमुक्त ब्रह्म पर, चरित सुनहिँ तजि ध्यान । जे हरिकथा न करहिं रति, तिन्ह के हिय पापान ॥४२॥ परब्रह्म के ध्यान को छोड़ कर जीवन्मुक्त मुनि इस चरित्र को सुनते हैं। जो भगवान की कथा में प्रीति नहीं करते, उनका हृदय पत्थर है ॥ ४२ ॥ -एक बार रघुनाथ बोलाये । गुरु द्विज पुरबासी सब आये । बैठे सदसि अनुज मुनि सज्जन । बोले बचन भगत-भय-भजन ॥१॥ एक बार रघुनाथजी ने ( भाम रबार के लिये ) बुलवाया, गुरुजी, प्रामण और नगर चौ-