पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१११६

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सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । १०३७ कहते हैं। भाप तत्वा, शिये हुए उपकार को माननेवाले और शानता के नाशक हैं, श्राप के भनेक नाम है, नाम से रहित और माया से निर्लिप्त (निष) हैं ॥३॥ सर्व सर्बगत सर्व उरालय । अससि सदा हम कहें परिपालय ॥ द्वन्द बिपति भवफन्द बिमज्जय । हृदि असि राल काम पद गाय wen सब आप ही हैं, सप में प्राप्त और शिवजी के हृदय-मन्दिर में गलनेवाले सदा हमारी रक्षा कीजिये । हे रामचन्द्रजी ! मेरो दुःखद् विपत्ति और संसार बस्यान को नष्ट कर दीजिये, मेरे रदय में निवास करके काम और मद का विगंस.कीजिये ॥ ४ ॥ दो०-परमानन्द . छपायतन, मन परिपूरन काम । प्रेम-भगति अनपायनी, देहु हमहि श्रीराम ॥३॥ भाए. आनन्द स्वरूप कृपा के स्थान और मनकामना को परिपूर्ण करनेवाले हैं। हे श्रीरामचन्द्रजी हम लोगों को अपनी निश्चत प्रेम-लक्षणा भांक प्रदान कीजिये ॥ ३४॥ चौ०-देहु भगति रघुपति अति पावनि त्रिविधि-तापभव-दाप नसावनि। प्रनत काम सुरधेनु कलपतरू । होइ प्रशन्न दीजे मनु यह बरु॥१॥ हेरघुनाथजी ! तीनों प्रकार के ताप और संसार सम्बन्धी घमण्ड को नशानेवाली अत्यन्त पवित्र अपनी भक्ति हमें दीजिये । हे प्रभो! शाप शरणागतो की कामना पूरी करने में कामधेनु और कल्पवृक्ष हैं, प्रसन्न हो कर हम लोगों को यही वर दीजिये ॥ ६ ॥ भव बारिधि कुम्भज रघुनायक । सेवक सुलभ सकल सुखदायक ॥ मन सम्भव दारुन दुख दारय । दीनबन्धु समता विस्तारय ॥२॥ हे रघुनायक! श्राप संसार रूपी समुद्र को सुखाने में अगस्त्य मुनि हैं, सेवकों को सहज मैं मिलनेवाले और सम्पूर्ण सुखों के दाता हैं। मन अथवा काम से उत्पन्न भीषण दुःख का नाश कीजिये, हे दीनबन्धु समता का विस्तार कीजिये अर्थात् भेदभाव को हदय से दूर कर दीजिये ॥२॥ आस त्रास इरिषादि निवारक । बिनय बिबेक बिरलि बिस्तारक । भूप-मौलिमनि मंडन धरनी। देहि अगति संमृति-सरि तरनी ॥३॥ माप आशा, बास और ईर्या आदि के छुड़ानेवाले, सदाचार, ज्ञान और वैराग्य के बढ़ानेवाले हैं। हे राजामों के मुकुट मणि, धरती के भूषण प्रभो! संसार रूपी नदी के लिये नौका सपिणी अपनी भकि हमें दीजिये ॥३॥ . मुनि मन मानस हंस निरन्तर । चरन-कमल बन्दित अज संङ्कर । रघुकुल केतु सेतु सुति रच्छक । काल करम सुभाव गुन अच्छक ॥ मुनियों के मन यो मानसरोवर में निरन्तर रहनेवाले श्राप राजहंस रूप हैं, आप के चरण कमलों की वन्दना ब्रमा और शिवजी करते हैं। रघुकुल के पनाका, वेद की मर्यादा के रक्षक, काल, कर्म, स्वभाव और गुणों के विकार को श्राप भक्षण करनेवाले हैं ॥४॥