पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११०२

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सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । १०२३ कुलिसहु चाहि कठोर अति, कोमल कुसुमहु चाहि। चित खगेस अस राम कर, समुझि पर कहु काहि ॥१९॥ कागभुशुण्डजी कहते हैं-हे गरुड! रामचन्द्रजी का विच अत्यन्त कठोर है जिसकी कठिनता वन भी चाहता है और कोमल इतना है कि उसकी कोमलता को फूल भी पाने की इच्छा रखता है। ऐसा रामचन्द्रजी का चिच कहिये किसकी समझ में आ सकता है ॥ १६ ॥ रामचन्द्रजी का चित्त-उपमेय, वन और फूल-उपमान हैं । उपमेयं की अपेक्षा उपमान में लघुता वर्णन करना 'तृतीय प्रतीप अलंकार' है। चौ०--पुनि कृपाल लिय बोलि निषादा । दीन्हे भूषन बसन प्रसादा ॥ जाहु भवन सम सुमिरन करेहू । मनक्रमवचन धरम अनुसरेहू१ फिर कृपालु रामचन्द्रजी ने निषाद को बुला लिया, उसको प्रलाद रूप गहना और कपड़ा दिये। फिर बोले कि घर जाओ मेरा स्मरण करना और मन, कर्म, वचन धर्म के अनुसार चलना ॥१॥ तुम्ह मम सखा भरत सन माता । सदा रहेहु पुर आवत जाता ॥ बचन सुनत उपजा सुख भारी । परेउ चरन अरि लोचन बारी ॥२॥ तुम हमारे मित्र और भरत के समान प्यारे भाई हो, अयोध्या में सदा पाते जाते. रहना । प्रभु के वचन सुन कर निषाद को बड़ा नुय उत्पन्न हुआ, आँखों में जल भर कर पाँच पर गिर पड़ा ॥२॥ घरन-नलिन उर धरि गृह आवा । प्रभु सुभाउ परिजनन्हि सुनावा । रघुपति चरित देखि पुरबासी।पुनि पुनि कहहिँ धन्य सुख-रासी ॥३॥ चरण-कमलों को हृदय में रख कर घर माया और स्वामी का स्वभाव अपने कुटुम्बियों को सुनाया। रघुनाथजी के चरित्र को देख कर अयोध्या पुर-धासी बार बार कहते हैं कि सुख के राशि रामचन्द्रजी धन्य हैं ॥३॥ राम राज बैठे त्रैलोका । हरषित भये गये सब सोका ॥ घयर न कर काहू सन कोई । राम-प्रताप विषमता रामचन्द्रजी के राज-सिंहासन पर बैठने से तीनों लोक प्रसन्न हुआ और सब शोक जाता रहा। कोई किसी से बैर नहीं करता है, रामचन्द्रजी के प्रताप से विरोध नष्ट हो गया ॥४॥ दो वरनासम निज निज धरम, निरत बेद-पथ लोग। चाह सदा पावहिँ सुख, नहिँ मय सेोक न रोग ॥२०॥ वर्ण और श्राधम के लोग अपने अपने धर्म में तत्पर वेद-मार्ग से सदा चलते हैं और सुन पाते हैं, उनको किसी का डर नहीं और न शोक या रोग होता है ॥२०॥ खाई ॥४॥