पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०९४

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" सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । १०१५ पर किया है। यह समस्तवस्तुविषयक साहरूपक अलंकार' है । माया को लता अपिणी कह कर रसमें कटु-मधुर दोनों प्रकार के फलों का वर्णन 'अधिक अभेद रूपक अलंकार' है। चार स्वचा अर्थ, धर्म, काम मोक्ष । श्रीमद्भागवत में भी संसारवृक्ष का वर्णन है, वहाँ चारों पदार्थ ही चार प्रकार के रस कहे गये हैं; किन्तु यहाँ चारों त्वचा में बहुमत है। कोई मन, बुद्धि, चित, हार को | फोई अण्डज, पिण्डज, उद्भिद, स्वेदज को। कोई जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीया को। फोई चारों वेदों को और कोई भाङ्कार सहित सत्व, रज, तम को चार प्रकार के बाल कहते हैं । षट-स्कन्ध-रहना, बढ़ना, घटना, विपर्यय होना, जन्म लेना, मरना। पचीस शाखा-आँपा, कान, नाक, जीभ, त्वचा, पाणी, हाथ, पाँव, गुदा, लि, शब्द रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, श्राफाश, मन, बुद्धि, चित्त, अहवार और 'जीव यही पचीसो तत्व हैं। मनोरथ तरह तरह के अपार पत्र हैं और पालना फूल है । मीठा फल पुण्य जो स्वर्गादि देता है और कडुवा फल पाप जो नरक पहुंचाता है। संसार वृक्ष के माधार पर ठहरनेवाली अकेली लता माया है जो विद्या और प्रविधा कप में कड़वा तथा मीठा फल फलती है। जे ब्रह्म अजमवैतमनुभव,-गव्य मन पर ध्यानहीं। । ते कहहु जानहु नाथ हम तव, सगुन जल नित. गावहीं । करुनायतन प्रभु सदगुनाकर, देव यह बर माँगहीं ।। मन बचन कर्म विकार तजि तव, चरन हम अनुरागहीं ॥१२॥ जो आप को अजन्मा, ब्रह्मा, अद्वितीय, ज्ञान से प्राप्त होनेवाले और मन से परे जान कर ध्यान धरते हैं। हे नाथ / वे कहे और जाने, हम आप के सगुण यश को नित्य गाते हैं। है देव, सद्गुणों को खान स्वामिन, दयानिधान ! हम आप से यह वर माँगते हैं कि मन, वचन और कर्म से विकारों को त्याग कर श्राप के चरणों में प्रेम करें ॥१२॥ दो-सब के देखत बेदन्ह, जिनती कीनिह उदार । 'अन्तरधान भये पुनि, गये ब्रह्म-आगार ॥ सत्र के देखते वेदों ने श्रेष्ठ प्रार्थना की, फिर वे अदृश्य हो कर ब्रह्मलोक को चले गये। बैनतेय सुनु सम्भु तब, आये जहँ रघुबीर । सरीर ॥१३॥ बिनय करत गदगद गिरा, पूरित पुलक कागभुशुण्डजी. कहते हैं-हे गरुड़ ! सुनिये, तब अहाँ रघुनाथजी थे वहाँ शिवजी भाये और उनका शरीर पुलक से परिपूर्ण हो रहा है, अत्यधिक प्रेम भरी वाणो से स्तुति करने लगे ॥१३॥