पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०९०

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१०११ सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । दो०-सासुन्ह साइर जोनकिहि, मज्जन तुरत कराइ । दिव्य बसन बर भूषन, अंग अंग सजे बनाइ॥ सासुओं ने शादर के साथ तुरन्त जानकीजी को स्नान कराया और दिव्य वन तथा उत्तम गहने बना कर अङ्ग अंगों में सजे (पहनाये)। राम बाम दिखि सोमित, स्मारूप गुनखानि । देखि मातु सब हरषीं, जनम सुफल निज जानि । रामचन्द्रजी की बाई ओर लक्ष्मी रूपिणी गुणों की खानि सीताजी शोभित हैं, देख कर सब माताएं अपने जन्म को सुफल समझ कर प्रसन्न हुई। सुनु खगेस तेहि अवसर, ब्रह्मा सिन मुनि वन्द । चढ़ि बिमान आये सब, सुर देखन सुखकन्द ॥११॥ कागभुशुण्डजी कहते हैं- हे गाड़ ! सुनिये, उस समय ब्रह्मा, शिव, मुनिवृन्द और देवता विमानों पर चढ़ कर सब सुखधाम रामचन्द्रजी को देखने के लिये श्राये ॥१९॥ चौ०-प्रभु बिलोकिं मुनि मन अनुरागा । तुरत दिव्य सिंहासन माँमा । रबि सम तेज खो बरनि न जाई । बैठे राम द्विजन्ह सिर नाई ॥१॥ प्रभु रामचन्द्रजी को देख कर वशिष्ठ मुनि के मन में प्रेम उमड़ा, उन्होंने दिव्य सिंहासन मंगवावा । सूर्य के समान प्रकाशमान वह यखाना नहीं जा सकता, ब्राह्मणों को सिर नवा कर उसं पर रामचन्द्रजी बैठ गये ॥१॥ जनक-सुत्ता समेत रघुराई । पेखि प्रहरणे अनि समुदाई ।। . पेदमन्त्र सब द्विजन्ह उचारे । नम सुर मुनि जय जयति पुकारे ॥२॥ जनकनन्दिनी के सहित रधुनाथजी को सिंहासन पर विराजमान देख कर मुनियों का समुदाय अत्यन्त हर्पित हुना। तब ब्राह्मणों ने घेदमंत्र उच्चारण किया, पालाश से देवता और मुनि लोग जय जयकार पुकारते हैं ॥ १ ॥ प्रथम तिलक बसिष्ठ मुनि कीन्हा । पुनि सबविप्रन्ह आयसु दोन्हा।। सुत बिलोकि हरषी महतारी । बार बार आरती उतारी ॥३॥ पहले वशिष्ठ मुनि ते तिलक किया, फिर सब ब्राह्मणों को तिलफ करने की माझा दी। विमन्ह दान विविध विधि दीन्हें । जाचक सकल अजाचक कीन्हे ॥ पुत्र को देख कर माताएँ प्रसन्न हुई, वे धार वार आरती उतारती हैं ॥३॥ सिंहासन पर त्रिभुवन साँई । देखि सुरन्ह दुन्दुभी बजाई ॥१॥ प्राह्मणों को माना प्रकार के दान दिये गये, सम्पूर्ण याचकों को अयाच्य कर दिया। लाक्य के स्वामी को सिंहासन पर देख कर देवताओं ने नगारे गजाये ॥ ४ ॥