पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०८७

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. १०१० रामचरित मानस । कहहिं बचन मृदु विन अनेका । जग अभिराम राम अभिषेका ।। अब मुनिभर बिलम्ब नहिँ कीजै । महाराज कहँ तिलक करीजै ॥2॥ अनेक ब्राह्मण कोमल वाणी से कहते हैं कि रामचन्द्र जी का राज्यामिपेक संसार के लिये श्रानन्द रूप है । हे मुनिवर ! अब देरी न कीनिये, महाराज को तिलक कर दीजिये ॥४॥ दो-तब मुनि कहेउ सुमन्त्र सन, सुनत चलेउ हरषाइ । रथ अनेक बहु बाजि गज, तुरत सँवारेउ जाइ॥ तष मुनि ने सुमन्त्र से कहा। वे सुनते ही प्रसन्न होकर चले और जा कर तुरन्त बहुत से घोड़े, हाथी, नाना प्रकार के रथ सजवाये जहँ तहँ धावन पठइ पुनि, मङ्गल द्रव्य मँगाह । हरष समेत बसिष्ठ-पद, पुनि सिर नायउ आइ ॥१०॥ फिर जहाँ तहाँ दूतो को भेज कर मङ्गलीक द्रव्य मँगवाये, वे सब अपना अपना कार्य करके लौर नोकर हर्ष सहित फिर वशिष्ठजी के चरणों में सिर नवाये ॥१॥ चौ०-अवधपुरी अति रुचिर बनाई । देवन्ह सुमन-श्रुष्टि झरि लाई। राम कहा सेवकन्ह बोलाई । प्रथम सखन्ह अन्हवावहु जाई ॥१॥ अयोध्यापुरी अत्यन्त सुन्दर सजाई गई। देवताओं ने पुष्प वर्षा की झड़ी लगा दी। राम- चन्द्रजी ने सेवकों को बुला कर कहा कि पहले जोकर मित्रों को स्नान कराश्रो ॥१॥ सुनत बचन जहँ तहँ जन धाये । सुग्रीवादि तुरत अन्हवाये । पुनि करूनानिधि भरत हुँकारे । निज कर राम जटा निरुआरे ॥२॥ आशा सुनते ही जहाँ वहाँ सेवक दौड़ पड़े और सुग्रीव श्रादि सबाओं को तुरन्त स्नान फरवाया । फिर करुणानिधान रामचन्द्रजी ने भरतजी को बुला कर अपने हाथ से उनकी जटा के बाल अलग अलग किये ॥२॥ अन्हवाये प्रमु तीनिउँ भाई। भगतबछल कृपाल रघुराई । भरतभाग्य प्रभु कोमलताई। सेष कोटिसत सकहिं न गाई ॥३a भक्त-वत्सल कृपालु स्वामी रघुनाथजी ने तीनों बन्धुओं को स्नान करवाये । भरतजी के भाग्य और प्रभु की कोमलता को मसंख्यों शेष नहीं गान कर सकते ॥३॥ पुनि निज जड़ा राम विवराये। गुरु अनुसासन माँगि नहाये ॥ करि मज्जन प्रभु भूषन साजे । अङ्ग अनङ्ग कोदि छबि लाजे ॥४॥ फिर रामचन्द्रजी ने अपनी जटा के बाल अलग अलग करवाये और गुरुजी से भाशा माँग कर स्नान किये । स्नान करके प्रभु ने अङ्गो में आभूषण पहने, उनकी छवि को देख कर करोड़ कामदेव लजा जाते हैं |