पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०८२

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सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । १००५ सकता है जो पाता हो । भरतजी सम्हल कर बोले-हे कोशलनाथ ! आपने दास समझ कर दर्शन दिया तो पव कुशल ही है। विरह रूपी समुद्र में डूबते हुए, हे दयानिधे। आप ने हाध पकड़ कर मुझे यचा लिया ॥३॥ दो०-पुनि प्रभु हरणि सत्रुहन, अँटे हृदय लगाइ। लछिमन भरत मिले तम, परम प्रेम दोउ भाइ ॥५॥ फिर प्रभु रामचन्द्रजी प्रसन्नता से शत्रुहनजी को हृदय से लगा कर मिले । तच लक्ष्मणजी और भरतजी दोनों भाई अत्यन्त प्रेम के साथ मिले ॥५॥ चौ-भरतानुज लछिमन पुनि अँटे । दुसह बिरह सम्भव दुख मेटे ॥ सीता चरन भरत सिर नावा । अनुज समेत परम सुख पावा ॥१॥ फिर भरतजी के लय बन्धु शत्रुहनजी और लक्ष्मणजी ने मिल कर विरह से उत्पन्न असह- नीय दुःख मिटाया | सीता जी के चरणों में भरतजी ने मस्तक नवाया और छोटे भाई शत्रु इन के सहित अत्यन्त सुख को प्राप्त हुए ॥॥ प्रभु बिलोकि हर पुरबासी । जनित बियोग विपति सब नासी॥ प्रेमातुर सब लोग निहारी । कौतुक कीन्ह कृपाल खरारी ॥२॥ प्रभु रामचन्द्रजी को देख कर पुरवासी प्रसन्न हुए विरह से उत्पन्न उनकी सब विपत्ति नष्ट हो गई। सम्पूर्ण लोगों को प्रेम में अधीर देख कर कृपालु खर के पैरी ने खेल किया ॥२॥ अमित रूप प्रगटे तेहि काला । जथा जोग मिले सबहि छपाला ॥ कृपादृष्टि रघुबोर. बिलोकी । किये सकल नर नारि बिसोको ॥३॥ उस समय कृपालु रधुनाथजी ने अपना असंख्यों रूप प्रकट किया और सब से बचायोग्य मिले । कृपा की रष्टि से देख कर समस्त स्त्री पुषों को शोक-रहित कर दिया ॥३॥ एक रामचन्द्र जी को असंख्यों रूप में साथ ही सम्पूर्ण नगर-निवासी स्त्री-पुरुपों से मिलना कथन करना 'तृतीय विशेष अलंकार' है। छन मह सबहि मिले अगवाना । उमा मरम यह काहु न जाना । एहि बिधि सबहि सुखी करि रामा । आगे चले सील-गुन-धामा nen क्षण भर में भगवान सब से मिले, शिवजी कहते हैं-हे उमा! यह भेद किसी ने नहीं जाना। इसी तरह सभी को मुजी कर के शील गुण के स्थान रामचन्द्रजी आगे चले ॥४॥ कौसल्यादि मातु सब धाई । निरखि बच्छ जनु धेनु लवाई ॥५॥ कौशल्याजी आदिक सब माताएँ दौड़ी, ऐसा मालूम होता है कि मानों लेना (तुरन्त की पाई हुई) गऊ अपने बछड़े को देख कर दौड़ी हो ?