पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०८०

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. सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । १००३ अति प्रिय माहि इहाँ के बासी । मम धामदा पुरी सुखरासी ॥ हरषे कपि सब सुनि प्रभु बाली । घन्य अवध जो राम बखानी॥४॥ यहाँ के निवासी मुझे बहुत ही प्यारे हैं, यह पुरी सुखों की राशि और मेरे धाम (साकेत. पुर) को देनेवाली है । प्रभु रामचन्द्र जी के वचन सुनकर सब वानर प्रसन्न हुप, (मन में सरा- हने लगे कि) आयोध्यापुरी धन्य है जो रामचन्द्रजी के श्रीमुख से पखातो गई है ॥४॥ दो-आवत लोग सब, कृपासिन्धु भगवान। निकट प्रभु मेरेउ, उतरेउ भूमि बिमान । दयासागर भगवान प्रभु रामचन्द्रजी ने सब लोगों को आते देख कर विमान को नगर के समीप धरती पर उतरने की आशा दी, तदनुसार वह उतरा। उतरि कहेउ प्रभु पुष्पकहि, तुम्ह कुबेर पहिँ जाहु । प्रेरित राम चलेउ , हरष बिरह अति ताहु ॥४॥ उतर कर प्रभु ने पुष्पक को कहा कि तुम कुवेर के पास जाओ। रामचन्द्रजी का वाशा से वह चला, पर उसको भी अत्यन्त हर्ष और विरह से दुस पुना ॥४॥ स्वामी के समीप जाने का हर्ष और रामचन्द्रजी के वियोग का शोक, दोनों भावों का साथ ही उत्पन होना 'प्रथम समुच्चय अलंकार' है। पुष्पक विमान का वर्णन विस्तार से अगस्त्यसंहिता में है। इसका श्राकार हंस की जोड़ी के समान कहा गया है। स्फटिक मरिण का श्वेत वर्ण और भीतर फी वनावट बड़ी अद्धत मनोहर है। मन माने लोग इस पर सवार हो तो भी जगह की कमी नहीं होती और इच्छानुकूल चलनेवाला है। इसके स्वामी कुवेर हैं किन्तु रावण जोरावरी से उनसे छीन कर मालिक बन बैठा था। आज रामचन्द्रजी की कृपा से उसको बन्धन से छुटकारा मिला। चौ०-आये भरत सङ्ग सब लोगा । कृस तन नीरघुबीर बियोगा ॥ बामदेव बसिष्ठ मुनिनायक । देखे प्रभु महि धरि धनुसायक॥१॥ सब लोगों के साथ भरतजी आये, श्रीरघुनाथजी के वियोग से उनका शरीर दुबला हो गया है। घामदेव और मुनि नायक पशिष्ठजी को देख कर प्रभु रामचन्द्रजी ने धनुष-बाण पृथ्वीपर रख कर-॥१॥ बड़ों के सामने शस्त्र धारण कर प्रणाम के लिए जाना अनुचित है, इससे धरती पर रख कर चरण छूने को आगे बढ़े। धाइ धरे गुरुचरन-सरोरुह । अनुज सहित अति पुलक तनोरुह । कुसल बूझी मुनिराया। हमरे कुसल तुम्हारिहि दाया ॥२॥ छोटे भाई लक्ष्मणजी के सहित अत्यन्त पुलकित शरीर से दौड़ कर गुरुजी के चरण कमलों को पकड़ लिये। मुनिराज ने कुशल पूछी, रामचन्द्रजी ने कहा-हमारी कुशल श्राप दीकी क्या में है ॥२॥ 1 .