पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०७९

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La १००२ रामचरित मानस । दो०-हरषित गुरु परिजन अनुज, भूसुर-चन्द समेत। भरत अति प्रेम अन, सनमुख कृपानिकेत ॥ गुरु, कुटुम्बीजन, छोटे भाई शत्रुहन और ब्राह्मण वृन्द के सहित भरतजी प्रस- शता से मन में अत्यन्त प्रेम के साथ कृपानिधान श्रीरामचन्द्रजी के सन्मुख (स्वागत के लिये) चले। बहुतक चढ़ी अटारिन्ह, निरखहिँ गगन विमान । देखि मधुर सुर हरपित, करहिं सुमङ्गल बहुतेरी नववधुएँ बटारियों पर चढ़कर विमान आकाश में निरख रही हैं। देख कर प्रसन्नता से मधुर स्वर से सुन्दर मङ्गल गान करती हैं। राकाससि-रघुपत्तिपुर, सिन्धु देखि. हरपान । बढ़ेउ कोलाहल करत जनु, नारि तरङ्ग समान ॥३॥ रघुनाथजी पूर्णिमा के चन्द्रमा रूप है और अवधपुरं समुद्र रूप है, वह चन्द्रमा को देव कर प्रसन्न हुआ है। ऐसा मालूम होता है मानों कोलाहल करते हुए बढ़ रहा है, खियाँ लहर के समान हैं ॥ ३ ॥ रामचन्द्रजी पर पूर्णमासी के चन्द्रमा का आरोप कर नगर पर समुद्र का प्रारोपण स. लिए किया गया कि पूर्णिमा के चन्द्रमा को देख कर समुन्द्र उमड़ता है और बड़ा शब्द होता है, तरङ्गे उरती हैं। 'सम अभेदरूपक अलंकार' है । चौ०--इहाँ भानुकुल-कमल दिवाकर । कपिन्ह देखावत नगर मनोहर ॥ सुनु कपीस अङ्गद लड्डेसा। पावन पुरा रुचिर यह देसा ॥१॥ यहाँ सूर्यकुल रूपी कमल के सूर्य रामचन्द्रजी वन्दरों को मनोहर नगर दिखाते हैं। हे सुनीव, अहद और विभीषण ! सुनो, यह पुरी पवित्र है और देश सुन्दर है ॥१॥ जझपि सब बैकंठ बखाना । वेद पुरान विदित जग जाना ॥ अवध सरिस प्रिय माहि न सोज । यह प्रसङ्ग जानइ कोउ कोज ॥२॥ यद्यपि सब वैकुण्ठ को वखानते हैं, वेद पुराणों में प्रसिद्ध है और संसार जानता है। आयोध्या पुरी के समान मुझे वह भी प्रिय नहीं है, इस प्रसङ्ग को कोई कोई जानते हैं ॥२॥ जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि । उत्तर दिसि बह सरजू पावनि ॥ जा मज्जन त बिनहि. प्रयासा । मम समीप नर पावहिं बासा॥३॥ यह सुहावनी पुरी मेरी जन्मभूमि है, इसके उत्तर दिशा में पवित्र सरयू नदी बहती है। जिसमें स्नान करने से बिना परिश्रम ही मनुष्य मेरे समीप रहने को स्थान पातेहैं ॥३॥