पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०६९

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रामचरित मानस । तुरत पवन-लुत भवनत भयऊ । तब प्रभु भरद्वाज पहिं गयऊ । नाना विधि मुनि पूजा कीन्ही । अस्तुति करिपुनि आसिषदीन्ही॥२॥ आशा पाते ही पवनकुमार तुरन्त चल दिये, तब प्रभु रामचन्द्रजी भरद्वाज मुनि के पास गये । मुनि ने अनेक प्रकार से पूजा की, फिर स्तुति कर के माशीर्वाद दिया ॥२॥ मुनि-पद बल्हि जुगल कर जारी । चढि बिमान प्रक्षु चले बहोरी ॥ इहाँ नियाद सुना प्रभु आये । नाव नाव कहि लोग बुलाये ॥३॥ प्रभु रामचन्द्रजी दोनों हाथ जोड़ मुनि के चरणों की वन्दना कर के फिर विमान पर चढ़ कर चले । यहाँ निषादाज ने सुना कि स्वामी आ गये, उसने नाव नाव कह कर लोगों को बुलाया ॥३॥ सुरसरि नाँघि जान जब आयो । उतरेउ तट प्रभु आयसु पायो । सीता पूजी सुरसरी। बहु प्रकार पुनि चरनन्हि परी॥४॥ जब गङ्गाजी लाँध कर विमान इस पार पा गया और प्रभु रामचन्द्रजी की आज्ञा पा कर किनारे उत्तरा, तब सीताजी ने विवुधनदी का पूजन किया (जो जाती बेर मनौती कर गई थीं) फिर बहुत तरह से उनके पाँवों पर पड़ीं ॥४॥ दीन्हि असीस हरषि मन गङ्गा । सुन्दरि तब अहिवात अभङ्गा ॥ सुनत गुहा धायउ प्रेमाकुल । आयउ निकट परम-सुख-सङ्कुल ॥५॥ गंगाजी ने प्रसन्न मन ले आशीर्वाद दिया। उन्हों ने कहा-हे सुन्दरी! तुम्हारा अखण्ड अहिषात हो । (रामचन्द्रजी का गंगा-तट पर उत्तरना) सुनते ही गुहा प्रेम से विहल होकर दौरा और अतिशय अानन्द से परिपूर्ण समीप आया ॥५॥ प्रभुहि सहित बिलोकि बैदेही। परेउ अवनि तन सुधि नहि तेही । प्रीति परम बिलोकि रघुराई । हरषि उठाइ लिया उर लाई ॥६॥ जनकनन्दिनी के सहित प्रभु रामचन्द्रजी को देख कर धरती पर पड़ गया, उसको अपने शरीर की सुध नहीं रही। उसकी प्रत्युत्तम प्रीति देख कर रघुनाथजी ने प्रसन्नता से उठा कर हृदय में लगा लिया ॥६॥ हरिगीतिका-छन्द । लियो हृदय लाइ कृपानिधान सुजान राय रमापती । बैठारि परम-समीप बूझी,-कुसल सो कर बीनती । 2