पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०६०

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पष्ट सोपान, लडाकाण्ड । कोउ ब्रह्म निर्गुन ध्यान । अव्यक्त जेहि लुति गाव । माहि भाव कोसलभूप। श्रीराम सगुन सरूप ॥१५॥ कोई निर्गुण ब्रह्मा का ध्यान करते हैं जिनको चेद अप्रत्यक्ष गाते हैं। पर मुझे अयोध्या. नरेश सगुण-रूप श्रीरामचन्द्रजी प्रिय लगते हैं ॥ १५ ॥ बैदेहि अनुज समेत । मम हृदयय करहु निकेत । माहि जानिये निजदास । दे भक्ति रमा-निवास ॥१६॥ जनकनन्दिनी और छोटे भाई लक्ष्मण के सहित मेरे हृदय में निवास कीजिए। हे जानकी नाथ ! मुझे अपना दास समझिए और अपनी भक्ति दीजिए ॥१६॥ हरिगीतिका छन्द । दे भक्ति रमानिवास त्रास-हरन सरन-सुख-दायकं । सुख-धाम राम नमामि काम अनेक छबि रघुनायकं ॥ सुर-वृन्द-रजन द्वन्द भञ्जन, मनुज तनु अतुलित बलं । ब्रह्मादि सङ्कर सेव्य राम नमामि करूना कोमलं ॥३०॥ हे लक्ष्मीकान्त ! शरणागतों के भयहारी और सुख देनेवाले ! मुझे अपनी भक्ति दीजिए । असंक्ष्यों कामदेव की शोभावाले, सुख के धोम, रघुकुल के प्रधान रामचन्द्रजी ! मैं आप को नमस्कार करता हूँ । देवता समूह को मानन्द देनेवाले, विग्रह को नसानेवाले श्राप मनुष्य देह में मप्रमाण पलशाली हैं। हे ब्रह्मा श्रादि देवता और शिवजी से सेवनीय, दयामय कोमल स्वभाव वाले रामचन्द्रजी ! मैं आप को प्रणाम करता हूँ ।। ३७ ॥ दो०-अब करि कृपा बिलोकि मोहि, आयसु देहु कृपाल । काह करउँ सुनि प्रिय बचन, बोले दोनदयाल ॥११३५ हे कृपालु ! अथ दया करके मेरी ओर निहारिये और मुझे आशा दीजिए कि में कौन सी सेवा कर ? इस तरह इन्द्र के प्रिय वचन सुन कर दीनदयाल रामचन्द्रजी बोले॥११३॥ चौ०-सुनु सुरपति कपि भालु हमारे । पर भूमि निसिचरन्हि जे मारे ॥ मम हित लागि तजे इन्ह प्राना । सझल जियाउ सुरेख सुजाना ॥१॥ हे देवराज ! सुनो, हमारे बन्दर-भालुओं को जिन्हें राक्षसों ने मार डाला और वे धरती पर मरे पड़े हैं। हे सुजान इन्द्र ! उन्हो ने मेरी भलाई के लिए प्राण बजा है, इसलिये तुम सव को जिला दो॥१॥ सुनु खगेस प्रभु के यह बानी । अति अगोध जानहिँ मुनि-ज्ञानी ॥ मझु सक त्रिभुवन मारि जियाई । केवल सक्रहि दोन्हि बड़ाई ॥२॥ कागभुशुण्डजी कहते हैं -हे गबड़ ! प्रभु रामचन्द्रजी की यह वाणी बहुत गहरी (गढ़ा- १२४