पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०५६

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पष्ट सोपान, लङ्काकाण्ड। पवन पाप-मूल सुर-द्रोही। काम-लोभ-मद-एस .अति-कोही। बोउ कृपाल तन धाम सिधावा । यह हमारे मन घिसमय आवा ॥५॥ रावण पाऐं का मूल, देवताओं का वैरी, काम, खाम और घमण्ड में तत्पर अत्यन्त झोधी था। हे कृपालु भी आप के लोक ( वैकुण्ठ ) को गया, यह देख कर हमारे मन में पाश्चय्य हो ॥५॥ गुटका,धम-सिरोमनि तव पद पावा' पाठ है। हम देवतः परम अधिकारी । स्वास्थ र तन अगति बिसारी । मव-प्रधा' सन्तत हम परे । अब प्रनु पाहि सरन अनुसरे ॥६॥ हता इस उत्तम पद के अधिकारी हैं, पर स्वार्थ में लग कर श्राप की भक्ति को भूल गरे : हे प्रभो ! हम लोग निरन्तर संसार के बहाव में पड़े हैं, अय श्राप की शरण में आये कीजिए॥६॥ ६०-कणि विनती सुर सिद्ध सब, रहे जहँ तहँ कर जोरि। अति, सप्रेम तन पुलकि बिधि, अस्तुति करत बहारि ॥११०॥ र और सिद्ध सब विनती कर के हाथ जोड़े हुए जहाँ तहाँ खड़े रहे। फिर पुलपित शरी अत्यन्त प्रेम के साथ ब्रह्माजी स्तुति करने लगे ॥ ११० ॥ मा की प्रति में अतिसय प्रेम सरोजभव पाठ है। तोटक-छंद। 4 राम सदा सुख-धाम हरे । रघुनायक सायक-चाप-धरे॥ 'भवं बोरन-दारन सिंह प्रभो । गुन-सागर नागर नाथ निभा ॥१॥ सदा सुख के धाम भगवान रघुकुल के नायक, हाथ में धनुष-बाण धारण किए हुए रामचन्द्रजी की जय हो । हे प्रभो ! संसार रूपी हाथी को विदीर्ण करने के लिए आप सिंह तनु काम अनेक अनूप छंबी । गुन गावत सिद्ध सुनीन्द्र रूबी ॥ जस पावन नावन नागमहा । खगनाथ जथा करि कोप गहा ॥२॥ माप के शरीर की अनुपम छवि असंख्यों कामदेव से बढ़ कर है, पाप का गुण सिद्ध, मुनीश्वर और कवि गान करते हैं। आप का यश पवित्र है, रापण रूपी महा सर्प को शापने कोध कर के गरुड़ की तरह प्रस लिया ॥२॥ भञ्जन-सोक-भयं । गत-क्रोध सदा मनु बाध-मयं ॥ अवतार उदार अपार गुनं । महि-भार-बिभजन ज्ञान-धनं ॥३॥ भाप सेवकों को प्रसन्न करनेवाले और शोक भय के नाशक हैं, हे प्रभो ! श्राप सदा