पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०५४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

" " , मन, पष्ट सापान, लङ्काकाण्ड। १७ लक्ष्मणजी की आँखों में आँसू भर पाया, दोनों हाथ जोड़ कर खड़े हैं, स्वामी से वे भी कुछ कह नहीं सकते ॥२॥ देखि राम रुख लछिमन धाये। पावक प्रगटि काठ बहु लाये ॥ पावक प्रबल देखि बैदेही । हृदय हरष कछु भय नहिं तेहो ॥३॥ रामचन्द जी का हम देख कर लक्ष्मण दौड़े, बहुत सा काट ले आये और अग्नि प्रकट कर दी. ती हुई याग देख कर जनकनम्हिनो प्रसन्न हुई, उनके मन में कुछ भी भय हुश्रा ॥३॥ मन क्रम मल उर माही । तजि रघुबीर आन गति नाहीं । तो कृसानु मन्त्र के गति जाना । मो कह होहु शिखंड समाना ॥४॥ उन्हा-हे अनिदेव ! आप सब की गति जानते हैं, यदि मेरे हृदय वचन से रघुनाथगी को छोड़ कर दूसरे की गति नहीं है तो मेरे लिए श्राप चन्दन के समा.मल हो जाइए MR हरिगीतिका-छन्द । खंड-सम पावक प्रबेस किया सुमिरि प्रा मैथिली । जय कोसलेस महेस-बन्दित, चरन रति अति निर्मली ॥ प्रतिबिम्ब अरु लौकिक कलङ्क प्रचंड पावक महँ जरे । प्रभु चरित काहुन लखे सुर ना, सिद्ध मुनि देखहि खरे ॥३॥ प्रभु रामचन्द्रजी का स्मरण कर के मिथिलेशनन्दिनी ने चन्दन के समान अग्नि में प्रवेश किया। जिसके चरणों की प्रीति अत्यन्त पवित्र है और जिनकी वन्दना शिवजी करते हैं, कोशलेन्द्र भगवान की जय हो। परवाही और लौकिक कलक दोनो तीन प्रति में जल गये। आकाश में देवता, सिद्ध और मुनि खड़े हुए देख रहे हैं, पर स्वामी के (इस गूढ़ रहस्यमय) चरित्र को किसी ने नहीं लख पाया ॥ ३५ ॥ प्रतिविम्ब और कल आग में जलनेवाली वस्तु नहीं हैं, तो भी उन्हें जलने को कहा गया, यह कादि लक्षणा है। यहाँ मुख्यार्थ का बाध है, लक्षणा शक्ति से परछाही का जलना कहा गया है । यथा-मुख्य अर्थ को बाध पे, जग में पचन प्रसिद्ध । रूढ़ि लक्षणा कहत हैं, ताको सुमति समृद्ध ॥ धरि रूप पावक पानि गहिनी, सत्य सुति जग विदित जो। जिमि छोरसागर इन्दिरा रामहि समी आनि सो। बाम-विभाग राजति, रुचिर अति सेोमा मली। नव-नील नीरज निकट मानहुँ, कनक-पङ्कज की कली ॥३६॥ अग्नि ने देह धारण कर के जो वेद और संसार में यथार्थ लक्ष्मी प्रसिद्ध है । उनका हाथ सा राम