पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०४१

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N रामजरित-मानसं. ९६६ के स्वभाव को स्मरण कर के जनकनन्दिनी के हृदय में उस समय विरह की बड़ी व्यथा (वेदना) उत्पन्न हुई। निखिहि सक्षिहि निन्दति बहु भाँतो। जुग सम भई सिराति न राती॥ कति बिलाप सनहिँ मन भारी । राम-विरह जानकी दुखारी १२॥ थे रात्रि की और चन्द्रमा की बहुत तरह निन्दा करती है, रात बीतनी नहीं, युग के बरा- पर हो गई है। रामचन्द्रजी के वियोग से मन ही मन जानफोजी दुखी होकर बड़ा विलाप करती हैं ॥२॥ प्रीतम के वियोग से व्याकुल हो निरर्थक वचन कहना प्रलाप दशा है। ज अलि भयउ बिरह उर दाहू । फरकेउ बाम नयन अरु बाहू ॥ लगुन बिचारि धरी सन धीरा । अब मिलिहहिँ कृपाल रघुबीरा ॥३॥ जब हृदय में अत्यन्त विरह की जलन हुई, तर चाँशी नेत्र और वाँई भुजा फड़क उठी। लगुन का विचार कर के मन में धीरज धारण किया कि अब कृपालु रघुनाथजी अवश्य मिलेगे ॥३ विरहावस्था में शकुन के विचार से चित्त को दृढ़ करना कि स्वामी मिलेंगे 'धृति लझारी भाव' है । इस प्रसङ्ग को ठिकाने लगा कर अप कविता नदी का प्रवाह दूसरी भोर चला। इहाँ अर्थ निसि राजन जोगा। लिज सारथि सन खीझन लागा ॥ सह रन-भूमि छडायसि माही। धिग धिग अधम मन्दमति ताहो ॥४॥ यहाँ प्राधी रात को रावण सचेत हुश्रा, अपने सारथी से चिढ़ने लगा। अरे दुष्ट ! तूने मुझे रणभूमि छुड़ा दिया, रे अधम नीच-बुद्धि ! तुझ को धिक्कार है, धिकार है ॥४॥ रावण के खीझने में व्यसनामूलक ध्वनि है कि रणभूमि में प्राणत्याग होने से धीर गति मात होती है, ऐसी दशा में घर ला कर तूने मेरा बड़ा अपकार किया, फिर ऐसा कभी न करना। तेहि पद-गहि बहुधिषि समुझावो। भार भये रथ चढ़ि पुनि घावा॥ सुनि आगमन दसानन केरा । कपिदल खरमर भयउ घनेरा ॥५॥ उसने पाँच पकड़ कर बहुत तरह समझाया, सबेरा होते ही फिर स्थपर चढ़ कर दौड़ा। रावण का बागमन सुन कर वानरी सेना में बड़ी खलबली मच गई ॥५॥ जहँ तहँ भूधर बिटप उपारी धाये कटकटाइ भट. भारी ॥६॥ जहाँ तहाँ से पर्वत और वृक्ष उखाड़ कर बड़े बड़े योद्धा बन्दर कटकटा कर दौड़े ॥६॥ हरिगीतिका-छन्द । घाये जो मर्कट बिकट भालु, कराल कर भूधर धरा अति-कोपि करहिं प्रहार मारत, भजि चले रजनीचरा-॥