पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०४०

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पष्ट सोपान, लङ्काकाण्ड । मारा ऐसे दुःख पर भी जो मेरे प्राणों को शरार में बने है, वही विधाता उसको जिला रहा है और कुछ नहीं था बहु बिधि करति बिलाप जानको । करि करि सुरति कृपानिधान की। कह त्रिजटा सुनु राजकुमारी । उर सर लागन भरइ सुरारी ॥६॥ कृपानिधान रामचन्द्रजी की सुध कर फर के जानकीजी बहुत तरह विलाप करती हैं। निजरा ने कहा- राजकुमारी सुनिये, देवताओं का वैरी रावण शुदय में वाण लगते ही मरेगा ॥६॥ प्रभु तात उर हतई न तेही । एहि के हृदय असति बैदेही ॥७॥ प्रभु रामचन्द्रजी इसलिये उसके हृदय में भाग नहीं मारते हैं कि उसके हदय में विदेह नन्दिनी का निवास है ॥७॥ हरिगीतिका-छन्द । एहि के हृदय बस जानकी जानकी-उर सम बास है। मम उदर भुवन अनेक लागत, बान सब कर नास है। सुनि बचन हरप विवाद मन अति, देखि धुनि त्रिजटा कहा ॥ अब मरिहि रिपु एहि विधि सुनहि सुन्दरि तजहि संसय पहा ॥२५॥ वे मन में सोचते हैं कि इसके उदय में जानकी वसती है और जानकी के हदय में मेरा निवास है। मेरे उदर में अनेक महापड है, बाण लगते ही राय का नाश जायगा। यह वचन सुन कर सीताजी के मन में बड़ा हर्ष और विषार हुना, देख कर बिजटा ने फिर कहा-हे सुन्दरी ! सुनिए, संशय त्याग दीजिए, अव शन इस तरह मरेगा ॥२५॥ रावण की छाती में बाण मारने का कारण हेतु-सूचक पात कह कर समर्थन करना 'कायलिङ्ग अलंकार है। इसके हवय में जानकी, जानकी के हदय में मेरा, मेरे पदय में अखिल ब्रह्माण्ड का निवास, यह गृहलाबद्ध सम्बन्ध 'पावली अलंकार' है। हर्ष इस बात का कि स्वामी का अपने ऊपर स्नेह और विषाद इसलिए कि फिर वह मरेगा कैसे ? दोनों भावों का साथ ही उदय 'प्रथम समुच्चय अलंकार' है। दो-कादत सिर होइहि बिकल, छुटि जाइहि तन ध्यान । तब रावन कहँ हृदय मह, मरिहहिं राम-सुजान ॥६॥ सिर कटते कटते रावण विफल होगा, तब तुम्हारा श्यान छूट जायगा। सुजान राम चन्द्रजी उसी समय उसके हृदय में बाण मारेगे (तभी वह मरेगा) uan च० 10-अस कहि बहुतभाँति समुझाई। पुनि त्रिजटा निज भवन सिधाई। राम सुभाउ सुमिरि बैदेही । उपजी बिरह विथा अति तेही ॥१॥ ऐसा कह कर बहुत तरह से समझाया, फिर बिजटा अपने घर चली गई । रामचन्द्रजी 1