पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०३०

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षष्ट सोपान, लड्डाकाण्ड । . ९५५ अरुड चले । दसों मस्तों में इस बाण मारे, घे सिरों को वेध कर पार निकल गये और रक्त के पनारे वदवले ॥४॥ रामवाण पर शिलीमुख (भ्रमर ) का आरोप इसलिए किया गया कि रावण के सिरों पर कमलवन का आरोप कर चुके हैं 'परम्परित रूपक' है और शिलीमुख शब्द श्लेषार्थी ई 'घाण नथा भ्रमर' दोनों का बोधक है। गोसाईगी कहते हैं जैसे भ्रमर कमल वन की ओर दौड़ कर जाते और उस में प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार रामचन्द्रजी के बाण रावण के सिरों में घुसने लगे; किन्तु कविजी का लक्ष्य वाण से है न कि भ्रमर से, इसलिए शब्द .'श्लेषालंकार है। खवत रुधिर धायउ बलवाना । प्रभु पुनि कृत धनु खर सन्धाना ॥ तीस तीर रघुबीर पारे । सुजन्ह समेत सीस महि पारे ॥५॥ बलवान रायण रक्त बहते हुए दौड़ा, फिर प्रभु ने धनुष पर घाणों का सन्धान किया। रघुनाथजी ने तीस बाण चलाये, उन वाणों ने रावण की बीसों भुजाओं के समेत दस सिरों को काट कर धरती पर गिरा दिया ॥५॥ काटतही पुनि मये नबीने । राम बहोरि भुजो सिर छोने । कटत झठित पुनि नूनन भये प्रभु बहु बार बाहु सिर हये ॥६॥ काटते ही फिर नये हो गये, फिर रामचन्द्रजी ने भुजाओं और सिरों को काटे । काटते ही झटपट फिर नवीन एप, प्रभु ने असंखों बार बाहु सिर काटे ॥ ६ ॥ कारण से विरुण कार्य का प्रकट होना अर्थात् वायुसर कटने पर भी नवीन उत्पन्न होते जाना पश्चम विभावना अलंकार' है। पुनि पुनि प्रभु काटत भुज सीसा । अति कातु को कोसलाधीला । रहे छाइ नम सिर अरु बाहू । मानहुँ अमित केतु अरू राहू ॥७॥ फिर फिर प्रभु रामचन्द्रजी भुजा और सिर काटते हैं, कोशलेश्वर भगवान पड़े खेलवाडी हैं। माकाश में सर्वत्र सिर और वाहु छा रहे हैं, वे ऐसे मालूम होते हैं मानों बहुत से केतु तथा राह॥७॥ हरिगीतिका-छन्द । । जनु राहु केतु अनेक नम पथ, सत्रत सोनित धावहीं । रघुधीर तीर प्रचंड लागहि, भूमि गिरन न पावहीं । एक एक सर सिर निकर छेदे, न उड़त इमि साहही। जनु कोपि दिनकर-कर-निकर जहूँ,-तहँ बिधुन्तुद पाहही ॥१८॥ मानो असंख्यो राहु केतु श्राकाश-मार्ग में खून बहते हुए दौड़ रहे हैं। रघुनाथ जी के नीय बाण लगने से वे गिरने नहीं पाते हैं। एक एक बाण प्रत्येक सिरों में फंसे हुए आसमान में ऐसे