पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०२२

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भष्ठ सापान, लङ्काकाण्ड । ७. देव बचन सुनि प्रभु मुस्काना । उठि रघुवीर सुधार बाना ॥ जटा-जूट हुद बाँधे थे। सहहि सुमन बी बिच माथे ren देवताओं की बात सुन कर प्रभु मुस्कुराये, फिर रघुनाथजी ने उठ कर अपने बाण सुधारे । मस्तक पर मजबूत जटा का जूड़ा बांधा, उसके बीच बीच में फूल गुथे हुए शोभित हो रहे है nell अरुन-नयन वारिद-तनु-स्यामा । अखिल-लेक लोचन-अभिरामा । कटि तट परिवार कसे निषला । कर कोदंड कठिन सारडा ॥५॥ लाख आँखें, वादल के समान श्याम शरीर जो सम्पूर्ण लोगों के नेत्रों को प्रानन्द देनेवाले हैं। कमर में कुहा से तरकस कले हुए और हाथ में कठिन शाई धनुष लिए हुए हैं ॥५॥ हरिगीतिका-छन्द । सारङ्ग कर सुन्दर निषङ्ग सिलीमुखाकर कटि कस्यो। भुजदंड पीन मनोहरायत,-उर-घरासुर-पद-लस्यो ।। कह दासतुलसी जयहि प्रभु सर, चाप कर फेरन लगे। ब्रह्मांड दिग्गज कमठ अहि महि, सिन्धु झूधर डगमगे ॥१२॥ हाथ में सुन्दर शाई-धनुष और कमर में वाणों की खान रूपी तरकस फसे हैं। मोट भुजदण्ड शोभायमान हैं. छाती विस्तीर्ण है, उस पर ब्राह्मण के चरण का चिह्न (भृगुलता) शेमित है। तुलसीदासजी कहते हैं-प्रभु रामचन्द्र जी जब हाथों में धनुष बाण फेरने लगे तब सारा ब्रह्माण्ड दिशाओं के हाथी, कच्छप, शेष, पृथ्वी, समुद्र और पर्वत डगमगाने दो०-हरणे देव बिलोकि छबि, बरहिँ सुमन अपार । जय जय प्रभु गुन-ज्ञान-बल, धाम हरन महि भार ॥६॥ देवता यह छवि देख कर प्रसन्न हुए और अपार फूलों की वर्षा करते हैं। गुण, ज्ञान, बल के धाम और धरती का भार हरनेवाले प्रभु रामचन्द्रजी की जय जयकार मनाते हैं ॥६ चौ०-एही बीच निसाचर अनी । कसमसात आई अति घनो । देखि चले सनमुख कपि-महा। प्रलयकाल के जनु घन-घट्टा ॥१॥ इसी बीच में बहुत धनी राक्षसी सेना कसमलाती हुई आई । उसे देख कर वानर-योद्धा सामने चले, वे ऐसे मालूम होते हैं मानों प्रलय काल के बादत ३१॥ बहु कृपान तरवारि चमङ्कहिँ । जनु दसदिति दामिनी दमहि । गज-रथ तुरग चिकार कठोस । गर्जा मनहुँ बलाहक घोरा ॥२॥ बहुत सी कटार और तलवार चमकती हैं वे ऐसी जान पड़ती हैं मानों दसों दिशाओं लगे ॥१२॥ .