पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०१७

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रामचरित मानस । . 1 पाहि पाहि रघुबीर गोसाँई । यह खल खाइ काल की नाई ।। तेहि देखे कपि सकल पराने । दसहुँ चाप सायक सन्धाने ॥४॥ हे स्वामी रघुनाथजी ! रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिये, यह दुष्ट काल की तरह खा रहा रावण ने देखा कि सब वानर भाग गये, तप दसों धनुषों पर वाण का सन्धान किया 10 हरिगीतिका-चन्ह सन्धानि धनु सर निकर छाडेसि, उरग जिमि उडि लागहीं। रहे पूरि सर धरनी-गगन-दिसि,-विदिसि कहँ कपि भागहीं॥ भयो अति-कोलाहल निकल कपि, दल भालु बालहिँ आतुरे । रघुबीर करुनासिन्धु आरत, बन्धु जन-रच्छक हरे ॥८॥ धनुष तान कर असंख्या पाण छोड़े, वे उड़ उड़ कर साँप की तरह लगते हैं। पृथ्वी, अाकाश, दिशाए और कोण सक्ष बाण से भर गये (कहीं भागने की गुमाइस नहीं) बन्दर कहाँ भाग १ बड़ा हुलाई घुमा, वानरों का दल व्याकुल हो उठा, भालू दुःख से चिल्ला रहे हैं कि करुणासिन्धु दीनबन्धु हासों के रक्षक भगवान रघुवीर ! रक्षा काजिए ॥८॥ दो-निज-दल बिकल देखि कटि, कसि निषङ्ग धनु हाथ । लछिमन चले क्रुद्ध होइ, लाइ राम-पद-भाथ ॥२॥ अपनी सेना को घबराई हुई देख कमर में तरकस कस कर और हाथ में धनुष ले लक्ष्मणजी रामजन्द्र जी के चरणों में मस्तक नवा कर क्रोधित हो चले ॥२॥ चौ०-२ खल का पारसि कपि आलू । मोहि बिलाकु तोर मैं खोजत रहेउँ तोहि सुत-घाती । आजु निपाति जुड़ावउँ छाती ॥१॥ लक्ष्मणजी ने ललकारा-अरे दुष्ट ! बन्दर-भालुओं को क्या मारता है, मुझे देख मैं तेरा काल हूँ । रावण बोला-अरे पुन-धाती! तुझ को मैं खोजता ही था, आज तेरा नाश कर के छाती ठराढी करूंगा ॥१॥ अस कहि छाड़ेखि बान प्रचंडा । लछिमन किये सकल सत खंडा... कोटिन्ह आयुध रावन डारे। तिल प्रवान करि काटि निवारे ॥२॥ यह कह उसने तीन बाण छोड़ा; लक्ष्मणला ने सब को सौ सौ टुकड़े कर दिये । करोड़ों, हथियार रावण ने चलाये, उन्हे.तिल के बराबर काट कर लक्ष्मणजी ने गिरा दिया ॥२॥. पुनि निज बानन्ह कीन्ह प्रहारा । स्यन्दन भजि सारथी मारा ॥ सत सत सर मारे दस भाला । गिरि-सृङ्गन्ह जनु प्रबिसहि ब्याला ॥३॥ फिर अपने बाणों को प्रहार किया, रथ चूर चूर कर के सारथी को मार डाला । रावण कालू॥