पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०१२

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. जनु मेरे॥ षष्ठ सोपान, लङ्काकाण्ड । की सवारियाँ, रथ, विमान आदि जिनमें नाना रंग के बहुत से धवजा पताका लगे हैं ॥१॥ हाथी, घोड़े, रथ और पैदल ये चारों अजिस सेना में हो, उले चतुरहिणी कहते हैं। चले मत्त-गाजे-जूथ घनेरे । प्राबिद जलद महत बरन बरन खिरदैत निकाया । समर सूर जानहिँ बहु माया ॥३॥ बहुत से मतवाले हाथियों के झुण्ड चले, वे ऐसे जान पड़ते हैं मानों वायु की प्रेरणा से वर्षा काल के मेघ आते हो । तरङ्ग के समूह नामी योद्धा जो युद्ध में बहुतेरी माया करना जानते हैं ॥२॥ अति विचित्र बाहनी निराजी । बीर बसन्त सेन जनु साजी ॥ चलत कटक दिगसिन्धुर डगहीं । छुभित पयोधि कुवर डगमगहीं ॥३॥ अत्यन्त विलक्षण सेना शोभित हो रही है, ऐसा मालूम होता है मानो ऋतुराज ने वीरों की सेना सजायो हो। फौज के चलते समय दिशा के हाथी काँप रहे हैं, समुद्र खलयता उठा और पहाड़ हिल रहे हैं ॥३॥ वसन्त सेना नहीं सजाता, यह केवल कवि की कल्पना मात्र 'अनुकविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है ॥ ३ ॥ उठी रेनु रवि गयड छपाई । पवन-थकित बसुधा-अकुलाई ॥ पनव निसान घोर रव बाजहिं । प्रलय समय के घन जनु गाजहि ॥४॥ इतनी धूल उड़ी कि सूर्य छिप गये, पवन रुक गयेनऔर धरती व्याकुल हो उठी। ढोल और डझा भीषण ध्वनि से बजते हैं, वे ऐसे मालूम होते हैं मानो प्रलयकाल के मेघ गरजवे हो ॥४॥ भेरि नफीरि बाज सहनाई। मारू राग सुमट सुभट सुखदाई। केहरिनाद बीर सना करहीं । निज निज बल पौरुप उच्चरहीं ॥५॥ 'नगारा, तुरही और शहनाई माक राग से बजते हैं, जो शुरवीरों को आनन्ददायक हैं। सब योद्धा सिंहनाद करते हैं और अपना अपना बल पुरुषार्थ बखानते हैं ॥५॥ कहइ दसाननं सुनहु सुभहा। मर्दहु भालु कपिन्ह के ठहा। हैंौँ. मारिहाँ धूप दाउ भाई । अस कहि सनमुख फौज रँगाई ॥६॥ रावण ने कहा-हे योग्राओ! सुनो, तुम लोग भालू और बन्दों के झुण्ड का नाश करो। मैं दोनों भाई राजकुमारों को माऊँगा, ऐसा कह कर फौज को सामने बढ़ाया ॥६॥ यह सुधि' सकल कपिन्ह जब पाई । धाये करि रघुबीर दोहाई ॥७॥ यह खबर जय वानरों को मिली तब वे रघुनाथजी की दोहाई कर के दाड़े ॥७॥

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