रामचन्द्रिका सटीक । मिटाई । होनहार खैरहै मोह मद सबको छूटै । होइ तिनूका वज वज्र तिनुका | टूटे २१ परशुराम-विजयवद ॥ केशव हेहयराजको मांस हलाहलकौरन खाइलियोरे । तालगि मेद महीपनको घृत घोरि दियो न सिरानो हियोरे ॥ खीर षडा- ननको मद केशव सो पलमें करि पानलियोरे । तौलौं नहीं सुख जौलहुँ तू रघुवंशको शोनु सुधान पियोरे २२ ॥ २१ हैहयराम को मांसरूपी जो हलाहल विष है मेद चरबी खीर वूष षडानन स्वामिकार्तिक या युक्तिसो मापनी सकल बलका सुनाय भाव दिखायो सरस्वती जनार्थः हे कुगर ! यद्यपि तू ऐसे ऋतु, कस्यो है परंतु जवलग स्ववश जे रामचन्द्र हैं दिनको सो कहे तिनको ऐसी न कहे स्तुत्य मधुर इति सुधासारिस पचन नहीं पियो तौलौ तोको सुख नहीं है इहा सुधा जो उपमान है ताके उधार सौ मधुरवचन उपमेय को ग्रहण | फियो तू सकल क्षत्रिन को क्षय फरथो है औ ये प्रतिवलवान् क्षत्रवंशमें उत्पन भये सो रैर समाझि तेरो नाश करिये को समर्थ हैं ताते ये जबलौं मधुरवचन सों तेरो दोष क्षमा नहीं करत तौलौ तोको सुख नहीं है इति भावार्थ "न पुण्यान्सुगते बन्धे द्विरपडे प्रस्तुतेऽपि चेति मेदिनी" २२ ॥ भरत-तत्रीचंद ॥ बोलत कैसे भृगुपति सुनिये सो कहिये तनबनिनावै । आदि बड़ेहो बड़प्पन राखो जाते सब जग यश पावै ॥ चंदनई में प्रतितन धरिये पागि उठे यह गुण सब लीजे। हेयमारे नृपतिसहारे सो यश ले किन युग जीजै २३ परशुराम-नाराचछद ॥ भलीकही भरत्थ तें उठाय पागि अंगते । चढ़ाउ चोपिचाप आप चाणले निषंग ते॥ प्रभाउ आपनो दिसाउ छोड़ि वाल भाइकै। रिझाउ राजपुत्र मोहिं राम ले छडाइकै २४ सोरठा ॥ लियो चाप जब हाथ तीनिहुँ मैयन रोप करि ॥ वरज्यो श्रीरघुनाथ
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