पृष्ठ:रामचंद्रिका सटीक.djvu/३३४

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३३८ रामचन्द्रिका सटीक । थों सिंधु सरोवर सों जेहि बालि बलीवर सो बरपेखो। ढाहिदिय शिर रावण के गिरिसे गुरु जातन जात न हेलो। शूलसमूलउखारि लियो लवणासुर पीछेते भाइ सो टेखो। | राघव को दल मत्तकरी सुरअंकुशदै कुशकै सब फेखो २८ दोहा । कुशकी टेर सुनी जहीं फूलि फिरे शत्रुघ्न ॥ दीप विलोकि पतंग ज्यों यदपि भयो बहुविघ्न २६ मनोरमाछंद ।। रघुनंदन को अवलोकतही कुश । उरमांझ यो शरशुद्ध निरंकुश ॥ ते गिरे रथ ऊपर लागतही शर। गिरि ऊपर ज्यों गजराज कलेवर ३० सुंदरीछंद ॥ जूझि गिरे जवहीं अरि हारन।भाजिगये तवहीं भटके गन ॥काढ़ि लियो जवहीं लव को शर । कंठ लग्यो तबहीं उठि सोदर ३१ दोहा ॥ मिले जो कुश लव कुशलसों वाजि बांधि तरुमूल । रणमहिं ठाढ़े शोभिजै पशुपतिगणपतिनूल ३२ ॥ इति श्रीमत्सकललोकलोचनचकोरचिन्तामणिश्रीरामचन्द्र- चन्द्रिकायामिन्द्रजिद्विरचितायांशत्रुघ्नसम्मोहोनाम पञ्चत्रिंशः प्रकाशः॥३५॥ यमते लेउँ छड़ाइ कहि या जनायो कि जो मस्यो है है तो यमपुरते फेरि ल्याइहौं २७ मत्तकरि सम कह्यो सो मतकरी को कृत राघवदल में स्था- पित करत हैं गाहियो मँझाइयो बालि वलीको जो बरबलहै ताहि बर कहे वट वृक्ष सों पेरयो कहे मर्देव औ शूलरूपी जो मूल जर रह्यो त्यहि सहित लवणासुरको वृक्षसों इति शेषः उखारि लीन्हों जैसे वृक्ष मूल के आधार सों सबल रहत है तैसे शूल सों लवणासुर सबल रह्यो तासों मूलसम कहो २८ पतंग पांखी २६ निरंकुश निर्भय कलेवर दे है ३० । ३१ । ३२ ॥ इति श्रीमजगजननिजनकजानकीजानकीजानिप्रसादाय जनजानकीप्रसाद- निर्मितायांरामभक्तिप्रकाशिकायां पञ्चविंशः प्रकाशः ॥ ३५॥