रामचन्द्रिका सटीक । भये अथवा आगमसों देश शुद्ध भये औ संगम जो स्पर्श है त्यहि आदि दै सो जन्मादि अनेक प्रकारसों शुद्ध भये ते आगे कहत हैं ४१ ॥ पादपद्मप्रणामही भये शुद्धसीरखहाथ । शुद्ध लोचन रूप देखतही भये मुनिनाथ ॥ नासिका रसना विशुद्ध भये सुगंध सुनाम । कर्ण कीजत शुद्ध शब्द सुनाय पीयुषधाम ४२ दो- धकछंद ॥ाये कह सोइ पायसु दीजै। अाजु मनोरथ पूरण कीजै ।। ब्राह्मए । जीवति सो सब राज्यं तिहारी । निर्भय दै भुवलोक विहारी ४३ ऋषि-मरहट्टाछंद ॥ तुम हो सबलायक श्रीरघुनायक उपमा दीजै काहि।मुनिमानस- रंता जगतनियंता आदि न अंत न जाहि ॥ मारौ लवणा- सुर जैसे मधु मुर मारे श्रीरघुनाथ । जग जयरसभीने श्री शिव दीने शूलहिं लीने हाथ ४४ दोहा॥ जाके मेलत शूल यह सुनिये त्रिभुवनराय ॥ ताहिभस्म करि सर्वथा वाही के कर जाय ४५ दोधकछंद ॥ देव सबै रणहारि गये। और जिते नरदेव भयेजू ॥ श्रीभृगुनंदन युद्धन मांड्यो। श्रीशिवको गनि सेवक छांडयो ४६ ॥ ४२ तुम्हारो जो सब राज्य है अर्थ राजवासी हैं सो जीवति जीवनसों निर्भय हैकै भुवलोक में विहारी कहे विहार करत हैं अर्थ तुम्हारे राज- वासी को कहूं भय नहीं है तामें हमको जीवितकी भय प्राप्त है इति भावार्थः ४३ । ४४ । ४५ । ४६ ॥ दोहा॥ पादारथ हमको दियो मथुरामंडल प्राप।। वासों बसन न पावहीं विना बसे अतिपाप ४७ राम ॥ रक्षहिंगे शत्रुघ्नसुत ऋषि तुमको सबकाल ॥ वासुदेव द्वै रक्षिहौं हँसि कह दीनदयाल ४८ भुजंगप्रयातछंद । चलौ वेगि शत्रुघ्न ताको सँहारो। वहै देश तौ भावतो है हमारो॥ सदा शुद्ध
पृष्ठ:रामचंद्रिका सटीक.djvu/३२८
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।