रामचन्द्रिका सटीक । रण्डानि मुंडानि लेले । महापाप माथे तिहारे सो देदै ३६ ॥ वंदीजननकी जो विनोद कहे स्तुति है तामें औ गणिकादिकन को अनेक विलासको का रह्यो औ जोदान द्रव्य राजाके इहांसे कढ़तरह्यो है तामें दशांश ब्राह्मण पावें औ अशेष सम्पूर्ण को हो श्राप रयो ३३।३४ । ३५१३६ ।। हुतो रौं सबै देशही को नियंता। भले की बुरेकी करी तैं न चिंता ॥ महासूक्ष्म है धर्मकी बात देखो । जितो दान दीन्हों तितो पाप लेखो ३७ दोहा ॥ कालसर्पसे समुझिये सबै राजके कर्म । ताहूते अतिकठिन है नृपति दानको धर्म ३८ भुजंगप्रयातछंद ॥ भयो कोटिधा नर्कसम्पर्क ताको। हुते दोषसंसर्गके शुद्ध जाको । सबै पापभेक्षीणभो मुक्त लेखी। रह्यो औधमें प्रानि है कोलबेखी ३६ तारकछंद ॥ तव बोलि उठो दरबारविलासी। द्विजद्वारलसै यमुनातट वासी। अतिश्रादरसों ते सभामहँ बोल्यो । बहुपूजनकै मगको श्रम खोल्यो ४० राम-रूपमालाचंद ॥ शुद्धदेश ये रावरे सो भये सबै यहि बार । ईश आगम संगमादिकही अनेक प्र- कार ॥धाम पावन ढगये पदपद्मको पय पाय । जन्म शुद्ध भये छुये कुछ दृष्टिही मुनिराय ४१॥ ३७ । ३८ जाको जा शुद्ध राजाको केवल संसर्गही के दोष रहे तासों नरक को संपर्क कहे संयोग भयो यासों राजाको भले बुरेकी चिंता करिबो उचित है इति भावार्थः जब नरकभोगसों सबै पाप क्षीण भये तब नरकते मुक्त भयो छूट्यो तव अवध में कोल कहे चांडाल भेद अथवा शूकरवेषी रूपधारी रह्यो है ३६ दरवार जो वहिार है ताको विलासी द्वारपाल | खोल्यो दूरि करयो ४० रामचन्द्र ब्राह्मणन सों कहत हैं कि हे शि! रा- बरे पागम श्राइवे सौ औ संगम बैठिवो पौड़िवो आदिसों तिन्हैं आदि जे और स्नान भोजनादि हैं तिनसों ये हमारे देश अनेक प्रकार सो शुद्ध भये औ तुम्हारे पदपन के छुये सों जन्म शुद्धभये श्री तुम्हारी दृष्टिसों कुल शुद्ध
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