रामचन्द्रिका सटीक । ३१६ बालक.।। सबको सब भाइ सदा सुखदायक । गुण गावत वेद मनो वचकायक ५॥ १ त्रिभुवन के शासन कहे शिक्षक पाप पुण्य कर्म को नाशकै आपने धाम पठावत हैं इत्यर्थः ॥ तपरूपी जो कानन वन है ताके मृग कहे अरण्य पशु जैसे अरण्य को मृग अवगाहन करत है तैसे अनेक तपस्याके अवगा- इनकर्ता इत्यर्थः २ आनि कहे मँगाइकै ३ श्लाघा स्तुति ४ । ५॥ तुम लोक रचे बहुधा रुचिकै तब । सुनिये प्रभु ऊजर हैं सिंगरे अब ॥ जग कोउन भूलिहु जाइ निरय मग। मिटिगे सब पापन पुण्यन के नग ६ दोहा । वरुणपुरी धनपतिपुरी सुरपतिपुर सुखदानि ॥ सप्तलोक वैकुंठ सब बस्यो अवधमें यानि ७ तोमरछंद ॥ हँसि यों कह्यो रघुनाथ । समुझी सबै विधिगाथ ॥ मम इच्छ एक सुजानि । कवहूं न होय सु- श्रानि ८ तव पुत्र जे सनकादि । मम भक्त जानहु आदि। सुत मानसिक तिनकेति । भुवदेव भुवप्रगटेति : हम दियो तिन शुभ ठाउँ । कछु और दीवे गाउँ॥ अब देहिं हम केहि ठौर । तुम कहो सुरशिरमौर १० ब्रह्मा-मरहट्टाछंद ॥ सब वै मुनिरूरे तपबलपूरे विदित सनाब्य सुजाति । बहुधा बहु बारनि प्रतिअवतारनि देवाये बहुभांति ॥ सुनि प्रभु प्रा- खंडल मथुरामंडलमें दीजे शुभग्राम । बाढ़े बहु कीरति लव- णासुर हति अतिअजेय संग्राम ११ ॥ दोहा । जिनके पूजे तुम भये अंतर्यामी श्रीप ॥ तिनकी बात हमैं कहा पूछत त्रिभुवनदीप १२ द्विज आयो ताहीसमै मृतकपुत्रके साथ ॥ करत विलापकलाप हा रामचन्द्र रघुनाथ १३ मल्लिकाछंद। बालकै मृतै सो देखि । धर्मराज सों विशेखि ॥ बात यों कही निहारि । कर्म कौनको विचारि १४ धर्मराज-मनो-
पृष्ठ:रामचंद्रिका सटीक.djvu/३१६
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।