रामचन्द्रिका साठीक। ३०७ फांससम कविजन कहत हैं यासों कान्यकी जो पद्धति रीति है ताकी शोभा को गहे हैं काव्यपद्धति कैसी है कोमल कहे कोमलाक्षरयुक्त जे शब्द हैं | तिनसों युक्त हैं सुष्टुवृत्त पद जाके औ उपमादि अलंकार सों युक्त हैं औ मित्र जे काव्यपाठी हैं तिनको मोहन है औ तिनके वाहुन को कविपाश- सम कहत हैं अर्थ बाहु पाशनम होत नहीं है परंतु कविनको नियम है कि काव्यरीतिमों स्त्री पुरुष के बाहु पाशसम कहत हैं " वृत्तश्छन्दश्चारित्र- तिधिति मेदिनी" २४ ॥ नवरंग बहुअशोकके पत्र । तिनमें राखत राजकलत्र । देखहु देव दीनके नाथ । हरत कुसुमके हारत हाथ २५ ९. दर अंगुरिन मुंदरी बनी । मणिमय सुवरण शोभासनी ॥ राजलोकके मन रुचिरये। मानोकामिनिकर कर लिये २६ अतिसुंदर उर में उरजात । शोभासर में जनु जलजातं ॥ अखिललोक जलमय करिधरे | वशीकर्ण चूरणचयमरे ॥ कामकुँवर अभिषेकनि मित्र । कलश रचे जनु यौवन मित्र २७ दोहा।।रोमराज श्रृंगार की ललित लतासीराज॥ ताहि फले कुचरूपफल लै जगज्योतिसमाज २८ ॥ दै छंदको अन्वय एक है हे देव ! हे दीनके नाथ ! यह देखो जे हाथ कुसुम फूलन के हरत में तोरत में हारत कहे थकत हैं अर्थ जिनसों फूलऊ | नहीं तूरि जात ऐसे कोमल जे हाथ हैं तेई नवरंग बहुत अशोक के पत्र हैं तिनमें कहे तिन हाथनमें राजकलत्र जे सीता है तिनको राखती हैं नासों मानो सुंदर जे अंगुरी हैं, तिनमें सुवरण शोभासों सनी मणिमय सुंदरी बनी हैं तेई रुचि कहे सुंदरतासों रये युक्त राजलोक कहे अंतःपुर के अर्थ सीतादिकन के मन हैं तिनको मानो कर में हाथ में करिलीन्हों है अतिसेवा करि सीतादिकन के मन मानो आपने हाथ में करिलीन्हों है. इत्यर्थः २५ । २६ । २७ । २८ ॥ चौपाई ॥ सूक्षमरोमावली सुवेष । उपमा दीन्हीं शुक सविशेष ।। उरमें मनहुँ मदनकी रेख। ताकी दीपति दिपति
पृष्ठ:रामचंद्रिका सटीक.djvu/३०४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।