२७३ रामचन्द्रिका सटीक । वैरसों हम कहां जाइँ तासों हे राम ! अभयदान दीजै खेलको समय है। आयो तासों अब खेल बंद करो इति भावार्थः १४ ॥ चौपाई ॥ गोलनकी विनती सुनि ईश । घरको गमन कखो जगदीश ॥ पुर पैठत अतिशोभा भई। वीथिन अस- वारी भरि गई १५.मनों सेतु मिलि सहित उछाह । सरितन के फिरि चले प्रवाह ॥ ताही समय द्योस नशि गयो । दीप उदोत नगरमहँ भयो १६ नखतनकी नगरीसी लसी।मानों अवध देवारी बसी ॥ नगर अशोकवृक्ष रुचिरयो। मधु प्रभु देखि प्रफुल्लित भयो १७ अघ अधफर ऊपर श्राकाश । चलत दीप देखियत प्रकाश ॥ चौकी दै जनु अपने भेव । बहुरे देव- लोकको देव १८ वीथी विमल सुगंध समान । दुहुँ दिशि दीसत दीपप्रमान ॥ महाराज को सहित सनेह । निजनैनन जनु देखत गेह १६ बहु विधि देखत पुरके भाइ। राजसभा महँ बैठे जाइ || पहर एक निशि बीती जहीं । बिनतीको शुक आये तहीं २०॥ १५ प्रथम जातसमय कह्यो है कि "तरुपुंजन सों सरिता भली । मानहुँ मिलन समुद्रहि चली" सो अब आवत में ताही में तर्क करत हैं कि मानों | सेतु में मिलिकै उछाह आनंद सहित सरितन के तेई प्रवाह फिरि चले हैं (जैसे लंका जात में रामचन्द्र सेतु बांध्यो है तामें लगिकै सरितन के प्रवाह फिरि चले हैं तैसे जानो १६ रुचि कहे सुंदरता सौ रयो युक्त नगररूपी जो अशोक वृक्ष है सो मधु कहे वसंत सम जे रामचन्द्र हैं तिन्हें देखि प्रफु- लित भयो है १७ यामें आकाशदीपन को वर्णन है एकै आकाश के अध कहे अधोभांग में हैं औ एकै अधफर कहे मध्यभागमों हैं एकै ऊपर हैं या प्रकार ज्यों ज्यों क्रम क्रम डोरि खींची जाति है त्यों त्यों आकाशको चलत प्रकाश दीप देखियत है सो मानों ये सब दीप नहीं देवता हैं अवध- पुरी की चौकी देत है तिनके मध्य मानों आपने भेव कहे समय प्रमाण चौकी दे ये देव आपने लोक जात हैं १८ विमल तृणादिरहित सुगंध
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