२६० रामचन्द्रिका सटीक । बनि वहाइ ॥ पुनि महाकर्ता महात्यागी महाभोगी होइ । अति शुद्ध भाव रमै रमापति पूजिहें सब कोइ ३४ दोहा॥ राग द्वेष बिन कैसहू धर्माधर्म जो होह ॥ हर्ष शोक उपजै न मन कर्ता महासो लोइ ३५॥ धर्म के जे दानादि कर्म हैं निनको प्रयोग कहे यत्न सब पाणी प्रकाश जो रूप है ज्योतिरूप ताको पूजिकै हमारे सम दास भये हैं परिमाण कहे नि- श्चय ३२ । ३३ जो जीव या प्रकारसों पूजा पूजिकै परमभक्त कहायकै भव जो संसार हैं ताके दुःखनको भक्तिरसकी जो भागीरथी गंगा हैं तामें बहाइ देइ अर्थ दूरि करै फेरि महाकर्ता औ महात्यागी श्री महाभोगी होइ औ शुद्धभाव सो रमापति में ईश्वर में रमै कहे प्राप्तहोइ औ ताको सबकोऊ पूजन करि हैं ३४ महाकर्तादिकन के तीनिहूं के लक्षण क्रमसों कहत हैं जाके राग कहे प्रीति विना जीवरक्षणादि कछू धर्म अकस्मात् छैजाइ ताको हर्ष कहे सुख न होइ नौ द्वेष कहे विरोध विना जीवहिंसादि अधर्म होइ ताको शोक दुःख न होइ सो प्राणी महाकर्ता है ३५ ॥ भोज अभोजनरत विरत नीरस सरस समान ॥ भोग होइ अभिलाष बिन महाभोग ता मान ३६ जो कछु प्रांखिन देखिये वाणी बरण्यो जाहि ॥ महातियागी जानिये झूठी जानौ ताहि ३७ तोमरछंद ॥ जिय ज्ञान बहुब्योहार। अरु योग भोग विचार ॥ यहि भांति होइ जो राम । मिलि है सो तेरे धाम ३८ सवैया ॥ निशि वासर वस्तु विचार करै मुख सांच हिये करुणा धनु है । अघनिग्रह संग्रह धर्म कथा न परिग्रह साधुनको गनु है । कहि केशव योग जगै हिय भीतर बाहर भोजनसों तनु है । मनु हाथ सदा जिनके तिनको वनही घर है घरही वनु है ३६॥ भोज कई भक्ष्य औ अभोज कहे अभक्ष्य पदार्थ में रक्त अनुरक्त औ चिरत विरक्त न होइ अर्थ भोज्य अभोज्य को समान भक्षण करै औं नि-
पृष्ठ:रामचंद्रिका सटीक.djvu/२६०
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।