२५८ रामचन्द्रिका सटीक। सकति औ तिहि प्राणी के क्षणमें संसाररूपी दुःख क्षीण होत हैं औ मुक्तिरूपी जो अमित आनंद है सो उदोत प्रकाश करत है २२ अंगुष्ठ ते तृतीय अंगुली को नाम अनामिका है तासों नासाको वामरंध्र अंगुष्ठ सों रोकि वामरंध्र सों वायु को छोड़िये सो पूरक प्राणायाम है औ दक्षिण रंध्र अंगुष्ठ सों औ वामरंध्र अंगुष्ठ सों औ वामरंध्र अनामिका सों साथही रोकि वायु को हृदय में स्थापन करिये सो कुंभक है । यथा वायुपुराणे " प्राणायामविधा प्रोक्को रेचकः पूरकस्तथा । कुंभको रेचकस्तंत्र नासार- न्धाच दक्षिणात् ॥ निरुध्य वामरन्ध्रश्चानामिकायविसर्जनम् । निरुध्य दक्षिणं रन्ध्र वामरन्ध्राञ्च पूरणम् । तथैवानामिकागुन्या पूरणन्तु तदुच्यते । रेचकात्पूरणात्पश्चाद् द्वे पुटे नासयोस्तथा ॥ संनिरुध्य हदि स्थाप्य वायु- न्तिष्ठेत् स कुम्भकः " २३ ॥ २४ ॥ वशिष्ठ-तारकछंद ॥. हम एक समय निकसे तपसा को। तब जाइ भजे हिमवंत रसाको ॥ बहुभांति कखो तप क्यों कहि श्रावै । शितिकंठ प्रसन्न भये जग गावै २५ दंडकछंद॥ऊजरे उदार उर वासुकी विराजमान हारके समान आन उपमा न टोहिये । शोभिजै जटान बीच गंगाजू के जलबुंद कुंदकीसी कली केशोदास मन मोहिये ॥ नख कीसी रेखा चन्द्र चन्दन सी चारु रज अंजन शृंगारहू गरल रुचि रोहिये । सब सुख सिद्धि शिवा सोहै शिवजूके साथ जावकसो पावक लिलार लाग्यो सोहिये २६ ॥ रसा पृथ्वी जग गावै अर्थ जिनको जगत् के प्राणी गान करत हैं २५ ऊजरे ौ उदार कहे बड़े उरमें हार मालाके समान वासुकी नाम सर्प विराजमान है और उपमा को नहीं टोहिये कहे ढूंढ़ियत अर्थ और उपमा के सदृश नहीं हैं तासों खोज नहीं करियत रज कहे विभूति अंजन जो भंगार है ताकी रुचि गरल जो विष है ता करिकै रोहिये कहे धारण करि- यत है अर्थ लागि गयो पार्वती के नेत्रांजन सम गरल शोभित है सब मुख की सिद्धि शिवा जो पार्वतीजी हैं ते संग में शोभती हैं औ जावक कहे
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