२५६ रामचन्द्रिका सटीक। यामें संतोष को लक्षण कहत हैं जो काहू वस्तु की अभिताप जीमें न आवै औ काहू वस्तु के आये सों प्राप्त भये सों सुख न पावै औ गये सों दुःख न पावै मनको लेकै परमानंद जो ब्रह्म है तामें लगावै सोई सब मांझ कहे चारों के मध्य में संतोष कहावत है १३ यामें विचार को लक्षण कहत हैं मैं कौन हों औ कहां पायो हौं अब जा उपाय सों अपने पद स्थान को पाऊं सो टोहौं कहे ढूंढौं या प्रकार सो विचार करै औ बंधु कहे हित शमदमादि अबंधु कहे अहित काम क्रोधादि को हिये में जाने सोई विचार है १४ ॥ चारिमें एकहु जो अपनावै । तो तुमपै प्रभु श्रावन पावै॥ राम ॥ ज्योति निरीह निरंजन मानी । तामहँ क्यों ऋषि इच्छ वखानी १५ वशिष्ठ-दोहा ॥ सकल शक्ति अनुमानिये अद्भुत ज्योति प्रकाश ॥ जाते जगकी होत है उत्पति थिति अरु नाश १६ श्रीराम-दोधकछंद ।। जीव बँधे सब प्रांपनी माया। कीन्हें कुकर्म मनो वच काया ॥ जीवन चित्तप्रबोध नानो॥जीवनमुक्तके भेद बखानो १७ ॥ जैसे चोवशारको अपनाइकै राजा के पास सब जात हैं तैसे इन चार में एकहूको अपनावै तौ तुमपै जान पावै फेरि राम ऋपिसों पूंछयो कि ज्योति को तौ निरीह कहे इच्छारहित औ निरंजन कहे रागरहित मान्यो औ कह्यो कि ताकी इच्छा ते भये नारायण मतिनिष्ठ " तौ ज्योतिमें इच्छा क्यों कही सो कहौ १५ वशिष्ठ ब्रह्यो कि अद्भुत जो ज्योतिको प्रकाश है तामें इच्छादिक हैं तो नहीं परंतु इच्छादिकनकी सबकी शक्ति, अनुमानियत है जा शक्ति सों संसारकी उत्पत्ति स्थिति नाश होत है १६ जीव जे हैं ते आफ्नी मायामें बँधे मनसा वाचा कर्मणा कुकर्म कुत्सित कर्म कीन्हे हैं तिन जीवन को जो प्रबोधन कहे ज्ञान तुम कह्यो सो हम चित्तमें आन्यो अर्थ न्यास जान्यो इति अब जीवन्मुक्त के भेद कहौ १७ ॥ वशिष्ठ ।। बाहरहूं अतिशुद्ध हियेहू । जाहि न लागत कर्म कियेहू ॥ बाहर मूढ़सों अन्त सयानो ताकहँ जीवन्मुक्त बखानो १८ दोहा ॥ आपुनसों अवलोकिये सबही युक्ता- .
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