पृष्ठ:रामचंद्रिका सटीक.djvu/२५३

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२५२ रामचन्द्रिका सटीक । का य सब प्राप्त होत हैं इति भावार्थः कैसे धावत हैं जैसे बड़वानल में समुद्र को नीर जल नाश के हेतु धावत है । यथा योगवाशिष्ठे " ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च सर्वे ये भूतमानपः। मृत्युनश्यति भूषाल सलिलानीव वाडवः" ॥२५॥ सुन्दरीछंद ॥ दोषमयी जो दवारि लगी अति । देखत ही त्यहिते जो जरी मति ॥ भोगकी प्राश न गूढ उजागर। ज्यों रजसागर में मुनि नागर २६ विजयाछंद ।। माछी कहै अपनो घर माछरु भूसो कहै अपनो घर ऐसो । कोने घुसी कहै धूसि घरौरा बिलारिौ व्याल विलेमहँ वैसो ॥ कीटक श्वानरो पक्षि नौ भिक्षुक भूत कहै भ्रमिजासह जैसो। हौं हूं कहीं अपना घर तैस्यहि ताघरसों अपनो घर कैसो २७ ॥ हे मुनिनागर ! या संसार में दोषमयी कहे दूषण अपवाद इति तत्- स्वरूप जो दवारि डाढ़ा है अथवा दोषमयी कहे दूपणाधिक्यरूपी जो दवारि है सो अति लगी है अति कहि या जनायो कि सब संसार भरे में लगी है ऐसो स्थान या संसार में कोऊ नहीं है कि जहां प्राणीको दोष न लगै अथवा जहां कोऊ को दोष न लगावै अर्थ या संसार में वृथा सव सबको दोष लगावत है अथवा दोष कहे परस्पर विरोधमयी जो दवारि लगी है ताको देखतही तासौं हमारी मति जरि गई है दवारि के छुये सों जरियन है याके देखत ही जरी कहे. अतितेज जनायो तामतिमें या संसार में राज्यादि भोग की आश कहे इच्छा न गूढ़ कहे अंतर में है न उजागर कहे प्रसिद्ध है जैसे | सागर समुद्र में रज धूरि गूढ उजागर नहीं है जा स्थान में जो जीव दवारि में जरत है ता स्थानमें ताके भोगकी इच्छा नहीं होति यह गति ही है २६ जैसे ये सब अपनो अपनो घर कहत हैं तैसे ता घरसों कहे ताही घरको हौं हूं अपना कहीं सो घर अपनो कैसो कहे कौन विधि है या संसार में कछू काहू को नहीं है वृथा ममत्व है इति भावार्थः २७ ॥ सुंदरीछंद ॥ जैसहि हौं अब तैसहि हौं जग । प्रापद संपदके न चलौं मग ॥ एकहि देह तियाग विना सुनि । हो न कछू अभिलाष करौं मुनि २८ जो कछु जीव उधारणको