पृष्ठ:रामचंद्रिका सटीक.djvu/२३७

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1 रामचन्द्रिका सटीक । राजमार नल भैयनि दयो । छलबल छीनि सबै तिन लयो । जब लीन्हों सब राज विचारि। नल दमयंती दियो निकारि १६ राजा सुरथराजकी गाथ । सौंपी सब मंत्रिन के हाय ॥ संतत मृगया लीन विचारि। मंत्रिनराजा दियो नि- कारि १७ राजश्री अतिचचल तात । ताहूकी सुनि लीजै बात ॥ यौवन अरु अविवेकी रग। विनश्यो को न राजश्री संग १८ शास्त्र सुजलहुँ न धोवत तात । मलिन होत अति ताके गात ।। यद्यपि है अति उज्ज्वल दृष्टि। तदपि सृजति रागनकी सृष्टि १६ ॥ मलकी कथा पुराणमा प्रसिद्ध है १६ मृगया शिकार सुरथहू की कथा मार्कंडेयपुराणमा प्रसिद्ध है १७ अति चंचल जो राजश्री है वाहू में ऐसी दोष है सो सुनौ कहियत है यौवन श्री अविवेकी रग औ राजश्री के संग मैं को नहीं विनश्यो ये तीनों सम है अथा यौवन श्री अविवेकी रंगयुक्त जो राजश्री है अर्थ सदा यौवन भो अविवेकसी युक्त रहति है ताके सग को नहीं वितश्यो अथवा हितोपदेश में कयो है कि यौवन धनसम्पत्ति प्रभुत्वमविवेकना । एफैकमध्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयम् १" यामें चारि को है ता मतसों यह अर्थ कि यौवन अविवेकी, रंग औ राज औं श्री को सम्पत्ति इन चारिके संग में को नहीं विनश्यो १८ शास्त्र का उपदेश मनिकै शास्त्रकी आज्ञानुसार नहीं करत और तासो मलिन उदास होते हैं अथवा अनेक शास्त्र सुनावो ताहूपर पासकनकरि साक्रे गात मलिन होत हैं शाखहु सुतिकै अनेक पातक करतही है इत्यर्थ: भौ यद्यपि याकी उज्ज्वल विमल घष्टि है अर्थ उत्तम पदार्थन पर घष्टि है तो अति उत्तम जो पदार्य ईश्वरपद है. तामें प्रीतिवारे सों नहीं करेति राग जो सक चंदन पमितादि विषे अभिलाष है ताको सूजति कहे उत्पन्न करति है। "अभिमतविषयाभिनाषी राग" १६ ॥ महापुरुषसों जाकी प्रीति । हरति सो झंझामारुत रीति | विषय मरीचिकानि की ज्योनि । इद्री हरिण