२३४ रामचन्द्रिका सर्गक । मागने। अर्घ प्रादिदै विन किये गनेघने राम-रूप- मालाडद ॥शवरे मुखके पिलोकतही भये दुस दूरि। सुप्र- लाप नहीं रहे उरमध्य आनंदपूरि ॥ देह पावन हैगयो पर- पाशे पय पाड। पूजतै भयो वशपूजित आशुही मुनिराह ८ रानिधान भरे तपोधन धाम धी धन धर्म । श्रथमद्य सवै भये निरपद्य वासरकर्म ॥ ईश यद्यपि दृष्टिही भइ भूरि मगल सृष्टि । पुद्धिवे कह दोनिहै सो तथापि पारिसृष्टि ६ ॥ निष्ठ को उत्कर्ष है माते जिन "मिठोत्तापरस्थयोरित्यभिधान | चिन्तामणि" ६ विक में विचार रों अर्थ यथोनिन अनकहे अमोल अब पायादि पूजाविधि प्रसिद्ध है " अर्घ पुजाविधी मूल्ये इत्यभिधान- चिन्तामणि '७ छद को अन्वय एक है सगोपन ऋर्पित को सोधन है सुमलाप को मुपचन सुप्रलापा सुपनावित्यमर ' पदपथ को पय कहे चरणोदक राउरे पदको सबंध मुमलापादिकमा सर्वत्र है सनिधान कहे समीप लो अर्थ राजकिर गये सा हमारे पास घर और धी उनिधा औ धर्मगा भर शर्थ धाम घास भर बुद्धि भगेमों भरी श्रा आज सब कहे शीघही सबै न वासरस्मक रोज रोज ननक्षम है निरवण का माय भये औ हे ईश 'यपि तुम्हारी vिr सो भालोकनही सों हगपर भरि कहे बहुत ग्गल यह पलाया इष्टि भई अर्थ हमारी पड़ो पगारा भयो परम् क याण में गो काही उप्ति होती नही तासों अधिक कल्याण के लिये तुगों पळू पछिचे का हमारे पाक जे वचन है निनकी विशुष्टि कहे उत्पत्ति होति है -18|| दोहा ॥ गगासागरसों नडो साधुनको सतसग ।। पापन करि उपदेश अति अमृत करत अमग १०॥ साधुन को जो सत्सग है सो गगारागरहू सों बदो है कारने कि प्रति अन जो उपदेश शिक्षा है तासों पार कहे परित्र परिष अभग कहे नागरहित के अर्थ पुरत है अथवा प्रदेश सौ अनिमा करि नगन। 1THE करत है उपदेश करि भग कारका सतिगाम गर ।। हींगड़ो को एतो रागवद के - -
पृष्ठ:रामचंद्रिका सटीक.djvu/२३५
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।