२२० रामचन्द्रिका सटीक। राजन दान रहावै ५ विप्रन दीजन हीनविधाने। जानहु ताा हे नामम दान ॥ विष न जाना जै जगरूपै । जानहु ये सब विष्णुस्वरूपै ६ . श्लोक ॥ साचारो वा निराचारो माधुर्यामाधुरेव च । अविद्यो वा सक्द्यिो मा बाह्मणो मामकी तनु ७” तोमरबद ॥ द्विज धाम देहिं जो जाट । बहुभाति पूजि सुराइ ॥ कनाहिंने परिमान । कहिये सो उत्तमदान : दिजको जो देत बुलाइ । रहिये सो मध्यम राड ॥ गुनि याचनामिप दान । अतिहीनता रह जानु ६ ॥ ५ विश्नको जगरूप कहे जगन् । राशग कहे जानि जानहु ६ पाढे कया कि पिनको विस्वस्प जानी नाको विष्णवाक्य सों पुष्ट करत हैं विष्णु गयो है कि ब्राह्मण साचार कहे प्राचारपदिन होइ और अर्थ मुगम | है मामकी हे दमारा तनु कहा है ७ तारी उत्तम को जल प्रमाण नहीं है हीन कहे अधम । 'श्नोस् ॥ अभिगम्योत्तम दानमाहूत चैर मध्यमम् ॥ अधम याचमान स्यात्सेवादान तु निष्फलम् १०' दोहा॥ प्रतिदिन दीजत नेमसों ताम्ह नित्य वसान ॥ कालहि पाह जो दीजिये सोनेमिनिक दान ११ श्लोक ॥आश्रित साध- कर्माण ब्राह्मण यो व्यतिक्रमेत् ।। तस्य पुण्यचयोप्याशु क्षय याति न संशय १२' तोटकछद ॥ पहिले निजवर्तिन देह अथे। पुनि पारहिं नागरलोग सबै ॥ पुनि देहु सवै निज देशिनको। उक्लो धन देह पिदेशिनको १३ दोधमछद। दान समाम अकाम रहे। पूरि सवै जगमाझ रहेहे ॥ इच्छित ही फल होत सकामे । रामनिमित्त ते जानि अकामै १४॥ अभिगम्य कइ बामण के घर में जाइ जो दान है सो उत्तम है और पाहून कह नाह्मण को बोलाइ जो दान है सो म यम है ा याच्यमान HOME
पृष्ठ:रामचंद्रिका सटीक.djvu/२२१
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