२१६ रामचन्द्रिका सटीक । लग्नमये च है तिन सहित हैं " जना लग्नाचे मूल इति मदिनी " मर के अशु किरण जग के जे मग राह है तिनक उरशाई देखाउनहार हैं भी ऋषि यमलाक के नमदोपादि रवगेनार यज्ञादि इत्यादि सब लोकर | के मग दरशाई है राम नाम र जपमा स्वर्ग नरसको भोग मित्त ई युनि होनि ई ऋषितन ज्ञानोपदश गरिस्सगे व नरसको भोग दूरिकरि मोक्षको | भात रन है और नो सब चरणन क अत में सो पाउ होइ तो करल भरद्वाजही को वर्णन है ४३ जरा जो द्धना है सो भरटान के केशपाश गई है ासों प्रिया को अनिप्रिया स्त्री सम सानियत है प्रियाहू प्रति प्यारों धृता करि पानके केश गहतिट सो केश गहिरो अनुचिन समुकि ऋषि शाप न देहि याही त्राससों मानो ताके गात कापन हे जो कहीं अगनी भरद्वाज के फापन है बुद्धताके कैसे कहो तो भरद्वाज के अगन में मिले द्धनाके अग कापत है ताही सौं भरदाजहूके अग पापत हैं काहेते भरद्वाज क अगन म प्रधम का नहा रणो नामो जानी चद्रसम ऋषि हैं चन्द्रिकासम शुक्र जरा है अर्थ जरायुक्त शुक्रवार हैं ४४ ॥ दोहा॥ भस्मत्रिपुण्डूक शोभिजै बरणत बुद्धि उदार ॥ मनो त्रिस्रोतासोतयुति वदत लगी लिलार ४५ भुजगप्र- यातबद ॥ मनो अकुराली लमै सत्यकीसी । किधी वेद विद्याप्रभाई भ्रमीसी॥रमै गगकी ज्योति ज्यों जन नीकी। विराजे सदा शोभ दतावली की ४६॥ त्रिस्रोता गगा कहूँ वदति पाठ है तहा या अर्थ कि निस्रोताक सातन की शुति खिलार में लगी भरद्वाज को बदति है अर्थ सेवति है ४५ सत्य को रग रखा है प्रभा शोभा भ्रमी कहे भरद्वानको सुखरूपी शुभस्थान |पाइकै आश्चर्ययुक्त हेरही है अथ प्रसन्न रही है ज्यों कहे जानो जहनु ऋषिके मुरा नामी गगाफी ज्योनि रमति है जानु ऋषि गगाको पान कियो है सो कथा प्रसिद्ध है ४६ ॥ गीतिकाछद ।। भृकुटी विराजति श्वेत मानहु मंत्र अद्भुत सामके। जिनके विलोक्तही बिलात अशेष कर्मज कामके । मुखवास पास प्रकास केशव और भीर न साजहीं । जनु
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