रामचन्द्रिका सटीक । गूढ़ । सिंहनियुत जनु चंडिका मोहति मूढ़ अमूढ़ ॥मोहति मूढ़ अमूढ़ देवसँग दितिसों सोहै । सब शृंगार सदेह मनो रति मन्मथ मोहै ॥ सबशृंगार सदेह सकल सुख सुखमा. मंडित । मनो शची विधि रची विविध विधि वरणत पंडित ४६॥ सिगरी पुरी अतिपण्डित है अर्थ पुरीके निवासी जन सब पण्डित हैं यासों मानो गति कहे दशा है गूढ़ जाकी अर्थरूप पुरी है अपनी दशा को छपाये मानों गिरा सरस्वती हैं गिराह के श्राशते जन अभिक्टिन होत हैं अथवा मनहूं को भी गिरा कहे वचननहूं की गति है गूढ जाकी अर्थ नाझी दशा को अन्त मन वचन नहीं पावत चण्डिकाको सिंह वाहन है औ विकरालरूप देखि मूढ़ औ अमूढ़के भय से मोह होत है पुरी पुरुषसिंहन सों युक्त है श्री अतिविचित्र शोभा निरखि मूढ़ अमूढ़ के आनन्द से मोह होत है अदिति के देवता पुत्र हैं तासों संग में देव रहत हैं इहां अदिति पदकी अकारको लोप है भाषा के कविनको नियम है कहूं अकारादिपद की अकारको लोपकरि डारत हैं यथा । विहारीकृत सपशनिकायाम् "अधिक अँधेरो जग करै मिलि मावस रविचंद ।।" अथवा दिति दैत्यमाता सम है जैसे दिति सों बड़े वीर दैत्य भये हैं तैसे अयोध्या में अनेक वीर उत्पन्न होत हैं रति मन्मथ कामकी स्त्री है तासों मनको मोहति है पुरी शोभासों कामहूको मन मोहति है तासों अतिशोभायुक्त जानौ शची इंद्राणि हूं राज्यादि सब सुख औ सब सुखमा शोभासों मण्डितहै औ अनेकविधि सों पण्डित वर्णन करत हैं ऐसी पुरीहू है अथवा सुखमासों मण्डित युक्त सकल जे सुख हैं तिनसों सची कहे संचित पूंजीभूत मानों विधाः रच्यो है अर्थ पूर्णसुख औ पूर्णशोभा एकत्रकरि ताहीको पुरी बनायो है ४६ ॥ काव्यछंद ॥ मूलनहींको जहां अधोगति केशव गा- इय । होमहुताशनधूम नगर एकै मलिनाइय ॥ दुर्गति दुर्गनहीं जो कुटिलगति सरितनही में । श्रीफलको अभि- लाप प्रकट कवि कुलके जीमें ४७ दोहा॥ अतिंचंचल जहँ चलदलै विधवा बनी न नारि ॥ मन मोह्यो ऋषिराजको
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