रामचन्द्रिका सटीक। १८५ यत्र जा पर्वतमें औषधीद नहीं हैं विना पत्र फूले पखाशके वृक्ष हैं या प्रकार भूले कोकिलनकी पाली पगती रमती हैं श्री भंवर जामें भ्रमैं कहे घूमत हैं वसत कैसी है कि यत्र कहे जामें बिना पत्र पलाश फूलिरहे हैं औ जामें कोकिलाली रमती हैं श्री भूले कहे उन्मत्तता सों देहफी सुधि बिस राये मैंवर भ्रमत है या श्लेषोत्पेक्षा है सो सदानद जे राम हैं तिनके महानद के लिये हनुमान् मानो वसतही न्याये हैं धसत को देखि सबके आनद होत है तासों अथवा जैसे राजन के यहा भानदार्थ माली बसत बनाइकै लैजात है तैसे मानो रामचन्द्र के महामानद को हनुमान् वसप्त को रूपही बनाइ न्याये हैं ५५ मूरि जो औषधि है साको छिये कहे हुये सों ५६ । ५७॥ इति श्रीमजगजननिजनकजानकीजानकीजानिप्रसादाय जनजानकीप्रसाद निर्मितायारामभक्तिप्रकाशिकाया सप्तवंश प्रकाश ॥ १७॥ दोहा॥ अष्टादशे प्रकाशमें केशवदास कराल । कुभकर्ण को वर्णिबो मेघनादको काल १ दोधकछद ॥ रावण लक्ष्मण को सुनि नीके । छूटि गये सब साधन जीके ॥ रेसुत मत्रि विलंब न लावो । कुंभकरसहि जाइ जगावो २ राक्षस लक्ष्मण साधन कीने । दुदुभि दीन्ह बजाइ नवीने ॥ मत्त अमत्त बड़े अरु बारे। कुंजरपुज जगावत हारे ३ भाइ जहीं सुरनारि समागी । गावन बीण बजावन लागीं ॥ जागि उठो तबहीं सुरदोषी । क्षुद्रक्षुधा बहुभक्षण पोषी ४॥ कुंभकर्णको श्री मेघनादको काल कहे मृत्यु वर्णिको १ साधन कहे अप- सिद्धि के उपाय २ सापन कहे जगाइवे को यन ३ यह महादेव को घर रयो है कि देवांगनन को गान सुनि कुभकर्ण अकालहू में जागि है सासों जब देवागना भाइ गावन लागी तब जाग्यो । यथा हनुमन्नाटके " निद्रा तथापि न जहौ यदि कुम्भकर्णः श्रीकण्ठलब्धवरक्रिधरकामिनीनाम् ।। गन्धर्षयक्षसुरसिद्धनरांगनानामाकये गीतममृत परम त्रिनिद्रः ॥ ४ ॥ नाराचछंद ॥ श्रमत्तमत्तदंतिपक्ति एक कौरको, करै।
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