रामचन्द्रिका सटीक। १२६ दई। आस पास देखिके उठाय हाथकै लई ६६ तोमरछंद ।। जब लगी सियरी हाथ। यह भागि कैसी नाथ ॥ यह कह्यो लखि तब ताहि । मणिजटित मुंदरी पाहि ६७ जब बांचि देख्यो नाउ । मन पखो संभ्रमभाउ ॥ पाबालते रघुनाथ । यह धरी अपने हाथ ६८ बिछुरी सो कौन उपाउँ। केहि प्रा- नियो यहिठाउँ । सुधि लहों कौन उपाउँ। अब काहि बूझन जाउँ ६९ चहॅमोर चिते सत्रास । अवलोकियो भाकास ॥ तह शाख बैठो नीठि। तब पलो वानर डीठि ७०॥ हमारे वचननमें विमसरणशील जे सर्प हैं ही सर्पपद से सर्पप शाप जानौ ते जबलों तेरे अगनमें नहीं लागं अर्थ जैसे सर्पके काटतही माण छूटत हैं जैसे हमारे शापसों तेरी पाण छूटजैहै अथवा हमारे बचनही ने विसी कहे प्रसरणशील सर्प हैं ते जबलौं तेरे अंगनमें नहीं लागे ६४ । ६५ अरुणपत्रयुक्त अशोक वृक्ष विरह सौ दाहक अग्निसम देखिपरत हैं तासों सीताजू कयो कि तिहारो साग भागिसम हैरह्यो है सो हमको आगि तू देहि जामें जरिकै दुसह रामवियोग साप मिटाइये इति भावार्थ ६६ सियरी शीतल ६७ आषालते कयो लड़िकाइहीं सो ६८ सुधि कहे खबरि ६६ नीठि कहे मरूमरकै ७०॥ तब कह्यो को तू पाहि । सुर असुर मो तन चाहि ॥ के पक्षपक्षविरूप । दशकंठ वानररूप ७१ कहि आपनो तू भेद । नतु चित्त उपजत खेद ॥ कहि वेगवानर पापा नतु तोहिं देहों शाप ॥ तब वृक्षशाखारूमि । कपि उतरि पायो भूमि ७२ पद्धटिकाछद॥ करजोरि कह्यो हौं पवनपूत | जिय जननि जानु रघुनाथदूत ।। रघुनाथ कौन दशरथनद । दशरथ कौन अजतनयचंद ७३ केहि कारण पठये यहि निकेत । निज.देन लेन संदेश हेत ।। गुण रूप शील शोभा सुभाउ । कछु रघुपतिके लक्षण बताउ७४ प्रतियदपि सुमित्रानदभक्त ।
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