११२ रामचन्द्रिका सटीक । रावण-सुदरीछद ॥ तू भव मोहिं सिखावत है शठ । में वश जग्त कियो हठही हठ॥बेगि चले अब देहि न ऊतर। देव सबै जन एक नहीं हर दोहा॥ याचि चल्यो मारीच मन रणमहें दुहँविधि आसु ॥ रावणके कर नरकह हरिकर हरिपुरबासु ६ राम-सुंदरीछद ॥ राजसुता इक मंत्र सुनो अब । चाहतहौं भुवभार हलो सब ॥ पावकमें निज देहहिं राखहु । छाय शरीर मृगै अभिलाषहु १० चामरछद ॥ प्रा. इयो, कुरंग एक चारु हेमहीरको।जानकी समेत चित्त मोहो रामवीरको ॥ राजपुत्रिका समीप साधु बधु राखिकैं। हाथ चाप बाण ले गये गिरीश नांधिक ११ दोहा ॥ रघुनायक जबहीं हन्यो शायक शठ मारीच || हा लक्ष्मण यह कहि गिरेउ श्रीपतिके स्वर नीच १२ निशिपालिकाछंद ॥राजत- नया तबहिं बोल सुनि यों कह्यो।जाहु चलि देवर न जात हम पै रह्यो । हेममृग होहि नहिं रौनिचर जानिये। दीनस्वर राम केहिभांति मुख मानिये १३ ॥ एक हर महादेवको छोड़िके और सब देवता मेरे जनकहे सेवक हैं ८ आशु कहें जन्दी । छाया शरीरसों मृग कहे बलिवे को अभिलाष कुरौ अर्थ, छाया शरीर पालम्ब्य रहौ अथवा छायाशरीर सौ या सुवर्ण-' मृगको अभिलाषौ १० हेमसुवर्ण औ हीरनको कुरंग हरिण बनि मारीच आयो ११ जैसी रामचन्द्रको स्वर कहे शब्द है ताही स्वरसों हा लक्ष्मण ! यह कहिकै गिरथो नीच मारीच को विशेषण है १२ यह कोऊ राक्षस है "हरिणकोस्परिकै आयो है ताने रोमाद्र से मारतासों हा लक्ष्मण मो दीनस्वर रागचन्द्र कझो इति भावाय १३ ।। लक्ष्मण ॥ शोच अतिपोत्र उर मोच दुखदानिये। मात पात अवदात मम मानिये ॥ रैनिचर छद्म बहुभाति
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