रामचन्द्रिका सटीक। १०६ लपंगादि तरु भाम्रादि औ याही रीतिसों अर्थ जैसे सीताजूके गावतमें रमत है तैसे ही सौंदर्यादिहके पश है रामचन्द्र के समीपमें जलजीव हसादि औ जलजीव मयूरादि जे वनजीव कहे दडकारण्य के जीव है ते रमत हैं औ जहां वहां रामचन्द्रक सग भ्रमत हैं अर्थ जहाँ रामचन्द्र जात हैं तहा सग सग भ्रमत फिरत हैं तीनहूं छदनमें युक्ति यह कि जा जीवको जो अग बण्यों है ताके ही अपने पहिरायो अथवा जाके जा अंग में रामचन्द्र जो भूषण पहिरायो वाको तौन अंग सुदरताको प्राप्त है पर्यभयो ौ काहू काहू जीव के अव पर्यंत ताको चिह्न बन्यो है ३१ जैसे दूती इंडिकै स्त्री को पुरुष के पास लैजाति है जैसे रामचन्द्र के शरीर की जो सहजस्वाभाविक सुगंध है सो दिशि विदिशन में अवगाहिकै दिकै शूर्पणखा को रामचन्द्र के पास ल्याई रामचन्द्र के अगन को सहज सुगप जो वनमें वायु योग सो फैलि रयो है ताको आधाणकै ताके अनुसार शूर्पणखा रामचन्द्र के पास आई इति भावार्थ ३२ । ३३ ।। शूर्पणखा-सवैया ॥ किन्नर हो नररूप विचक्षण पच्छ कि स्वच्छशरीरनि सोही। चित्त चकोरके चंद किधों मुगलो- चन चार विमाननि रोहो॥अंग धरे कि अनंगही केशव अंगी अनेकनके मन मोहौ ।। वीर जटान धरे धनु बान लिये वनिता वनमें तुम कोही ३६ राम-मनोरमानंद ॥ हम हैं दशरथ महीपतिके सुत । शुभ राम सुलक्ष्मण नामन संयुत ॥ यह शासनदै पठये नृप कानन। मुनि पालहु मारहु राक्षसके गन ३५ शूर्पणखा ॥ नृप रावणकी, भगिनी गनि मोकह । जिनकी ठकुराइति तीनहु लोकह ॥ सुनिये दुख- मोचन पंकजलोचन । अब मोहिं करी पतनी मनरोचन ३६ तोमरछद ॥ तब यों कह्यो हँसि राम । अब मोहिं जानि सवाम ॥ तिय जाय लक्ष्मण देखि। समरूपयौवन लेखि ३७ शूर्पणखा-दोषकछंद ॥ रामसहोदर मोतन देखो।रावणकी भगिनी जिय लेखो। राजकुमार रमो सँग मेरे। होहिं सबै
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