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क्रूसो का नया साल।

ईश्वर की ऐसी उदारता देख मेरा सूखा हुआ प्राण फिर हरा हो गया; आँखों में प्रेमाश्रु भर आये। मेरे लिए मुझ से कुछ कहे सुने बिना ही भीतर ही भीतर विश्वम्भर का कैसा विराट् आयोजन हो रहा है, इसका अनुभव कर के मैं भगवान् को धन्यवाद देने लगा। यह देख कर मैं और भी विस्मित हुआ कि पहाड़ के आस पास भी अनाज के पौदे उगे हैं।

मैंने सोचा कि जब यहाँ अनाज के पौदे उत्पन्न हुए हैं तब इस द्वीप के अन्यान्य स्थलों में भी अनाज उपजते होंगे। इसी की जाँच के लिए मैं टापू की देख भाल करने गया। पर अनाज का एक भी पौदा कहीं दिखाई न दिया। तब मुझे स्मरण हो आया कि मैंने जो बोरे से निकाल कर भूसी फेंक दी थी उसीसे अनाज के ये अंङ्कुर उगे हैं। भगवान् की पालन-व्यवस्था के प्रति जो विश्वास हुआ था वह, इस ओर ध्यान जाते ही, बहुत कम पड़ गया। मेरी पहले की धारणा फिर मेरे सामने आ खड़ी हुई। मैंने समझा कि यह तो मेरे ही द्वारा स्वाभाविक घटना के अनुसार हुआ है। किन्तु चिरकाल का अविश्वासी मैं यह न समझ सका कि यह घटना क्योंकर, किसकी प्रेरणा से, हुई। चूहों ने एक तरह सब अनाज खा ही डाला था। उनमें किसी किसी दाने को अविकृत रूप में किसने बचा रक्खा था? उन तुषों को पहाड़ की तराई में फेंकने के लिए किस ने मुझे प्रेरित किया था? उसे समुद्र में न फेंक कर मैंने ज़मीन में ही क्यों फेंका? पानी में फेंकने से वह सड़ जाता और दूसरी जगह फेंकने से सूर्य के प्रचणड ताप में पड़ कर सूख जाता, किन्तु यहाँ पहाड़ की छाया में पानी पड़ते ही वह अंङ्कुरित हो उठा। यह सब भगवान् का सदय विधान नहीं तो क्या था?